Sunday 28 August 2011

जीव की गति PART - 1



आत्मा , जो की जिस शरीर को धारण करती हँ उसी उसी शरीर के लिए नियत कर्मो को करने के लिए बाध्य होती हँ
जैसे अगर यह जीवात्मा किसी कुत्ते के शरीर को धारण करती हँ तब ये घास नहीं खा सकती, तब इसे कुत्ते के शरीर के अनुरूप ही अपना आचरण करना होता हँ, ऐसे ही ये आत्मा जब मनुष्य शरीर को धारण किया करती हँ तब इसे भगवान् की भक्ति को प्राथमिकता देनी चाहिए न की नाम के बाद लिखे जाने वाले सरनेम को ...
ऐसा मेरा विचार हँ, आप लोग मुझसे सहमत हो, ये जरुरी नहीं, आपके अपने विचार हो सकते हँ
पर फिर भी में चाहूँगा की आप लोग इस पोस्ट को पढ़े क्योकि इस पोस्ट को लिखने में काफी मेहनत की हँ ....


तीन ही तत्त्व हँ
भगवान , जीव और माया या संसार
भगवान् , जीव और माया का शासक हँ
माया भगवान् की जड़ शक्ति हँ और जीव चेतन शक्ति
जीव के पास यह स्वतंत्रता हँ की वेह या तो भगवन की तरफ जाए या माया की तरफ
परन्तु यह जीव भगवान् के द्वारा कर्म करने के लिए दी हुई स्वतंत्रता का दुरूपयोग कर मायिक विषयों, मायिक जीवो, मायिक पदार्थो की प्राप्ति, उनके संग्रह, उन्हें अधिकाधिक भोगने की लालसा के कारण माया की तरफ ही चलता हँ
रेगिस्तान में मृग मरीचिका की भाँती उसे ये भ्रान्ति होती हँ की मायिक विषयों में बड़ा सुख हँ, और इसी सुख की लालसा में वेह और अधिकाधिक मायाबढ होता चला जाता हँ
मायाबद्ध होने के कारण वेह यह भूल जाता हँ की वास्तविक और स्थायी सुख केवल भगवत्प्राप्ति पर ही संभव हँ, उससे पहले नहीं..
वेह साड़ी उम्र कर्म में रत रहता हँ पर वास्तविक सत्य को नहीं जान पाता
शास्त्रों में सच ही कहा गया हँ की केवल कर्म करने से किसी को सिद्धि नहीं मिल सकती..
मन, बुद्धि पर माया का प्रभाव होने के कारण ये जीव अपनी मायिक बुद्धि से अपने भले बुरे का फैसला नहीं कर पाता और मायिक मन, मायिक बुद्धि '''सजातीय ''' होने के कारण इसे स्वाभाविक ही मायिक विषयों में खीचते हँ, उस पर से अनंत जन्मो से मायिक विषयों में ही व्यवहार करने का संस्कार भी इस जीवात्मा के अंतःकरण पर पड़ा होता हँ, इसलिए यह अपने वास्तविक कल्याण, अपने सदा के हितेषी, सदा के निकट सम्बन्धी , भगवान् की तरफ नहीं चल पाता
जब तक ये जीव मायाबद्ध हँ तब तक यह दुःख ही भोगता हँ... लेकिन, कभी किसी संत आदि के सत्संग आदि से जब यह जीव यह जानता हँ की उसके माता, पिता , पुत्र आदि सभी रिश्ते नाते केवल भगवान से हँ और भगवान की प्राप्ति करने पर ही वेह आनंदमय होगा तब वेह माया की गुलामी छोड़कर भगवान की तरफ चलता हँ...
अब यहाँ यह सवाल उठता हँ की अगर ये जीव भगवान का अंश हँ तो क्यों दुःख उठाता हँ?
माया, या मायिक पदार्थो को की प्राप्ति होने पर सुख मिलेगा..अनंत जन्मो से चली आ रही ये '' आशा'' ही दुखो मूल हँ की ये मिल जायेगा तो सुखी हो जायेंगे या फिर इस बार तो सुख नही मिला लेकिन इस बार ऐसा मनचाहा हो जाये तो इस बार सुखी हो जायेंगे...
और क्रम सदा से चला aa रहा हँ...
माया से बद्ध
जिस प्रकार से सपना देखते समय सपने में किसी वास्तु का अस्तित्व न होने पर भी जागे बिना उस स्वप्न जनित अनर्थ की निवृत्ति नहीं होती , उसी प्रकार ''' सांसारिक वस्तुए यद्यपि असत हँ
तो भी अविद्यवश(माया बद्ध होने के कारण )जीव उनका चिंतन करता रहता हँ और इसीकारण उसका जन्म मरण रूप इस दुखमय संसार से छुटकारा नहीं हो पाता ...
मायिक विषयों में ही मन की आसक्ति होने से और तदनुसार कर्म में रत रहने से जीव भिन्न भिन्न देहो को ग्रहण करता हँ और त्यागता रहता हँ,
इसी से उसे हर्ष, भय, शोक, सुख, दुःख आदि का अनुभव होता रहता हँ, जिस प्रकार कोई जंक, जब तक किसी दुसरे तरुण को नहीं पकड़ लेती तब तक पहले को नहीं छोडती , उसी प्रकार जीव मरंकाल उपस्थित होने पर भी जब तक देहाराम्भाक कर्मो की समाप्ति होने पर दूसरा शरीर प्राप्त नहीं कर लेता तब तक पहले शरीर के अभिमान को नहीं छोड़ता
अतःएव इस जन्म मरण रूप महान दुःख को देने वाली इस माया से छुटकारा चाहो तो श्री भगवान् का आसरा लो, उनकी शरण जाओ, उन्हें अपना स्वामी मानो
इस मनुष्य शरीर को धरान कर जीव का वही समय सफल हँ जिस समय वह श्री हरी का भजन करता हँ
भगवान् और उनकी शक्तिया अनादी हँ, अर्थात ये कभी किसी भी काल में, कल्प में नष्ट नहीं होती
इसलिए ये माया भी अनादी हँ, कोई जीव अपने ऊपर से माया को हटा सकता हलेकिन वो माया को कदापि ख़तम नहीं कर सकता, माया उस पर से हट जायेगी लेकिन बाकी जीवो पर रहेगी..
भगवान् भी अगर चाहे तो अपनी शक्ति माया को ख़तम नहीं कर सकते क्योकि भले हो वो जड़ हँ लेकिन अनादी और अनंत हँ
यह जीव जब अपने प्रारब्ध नुसार किसी नास्तिक के घर में जन्म लेता हँ तो वह मिले संस्कारों और परवरिश के कारण उसकी बुद्धि नास्तिको वाली ही विकसित होती जाती हँ और आगे चलाकार वेह नास्तिकतावाद का ही प्रचार करता हँ, अगर कोई उसे जबरदस्ती शास्त्रों का मर्म समझाए या वेह खुद ही शास्त्रों का अध्यन करे तो श्रद्धा न होने के कारण उसके द्वारा ज्ञान प्राप्त करने की कोई कोशिश कामयाब नहीं होती और वेह ऐसा निष्कर्ष निकालता हँ की भगवान् नाम की कोई चीज नहीं हँ, ये भगवान् नाम का तत्त्व तो किन्ही बिगड़े दिमाग वाले लोगो की उपज हँ , कमजोर लोगो को सहारे के लिए इस भगवान् नाम के तत्त्व को बढ़ावा दिया गया
वेह नहीं समझ पाता की कैसे अनंत ब्रह्मांडो के स्वामी भगवान् स्वयं एक मनुष्य के रूप में पृथ्वी पर अवतार लेकर मनुष्य सरीखी लीलाए कर सकते हँ,????
इस रहस्य को न जान्ने के कारन वेह उन लीलाओं में दोष्बुद्धि करता हँ
और नासमझी वश भगवान् के भक्तो की बुराई कर और भी पाप कमाता हँ और स्वयं के नरक जाने को सुनिश्चित करता हँ
इसके विपरीत जो जीवात्मा अपने पूर्व कर्मोवश किसी आस्तिक के परिवार में जन्म लेकर और उस घर के माहोल और परवरिश के अनुसार अपने अंतःकरण में आस्तिकते के, भगवान् के प्रति प्रेम के संस्कारों को विकसित करता हँ और भगवान् की सत्ता को स्वीकारकर उनके आगे श्रद्धापूर्वक झुकता हँ और भगवान् के प्रति प्रेम को अपनी श्रद्धा को अधिकाधिक बढ़ता हँ वेह सौभाग्यशाली जीव इस जन्म मरण रूप दुखमयी चक्र को तोड़कर सदा के लिए भगवत्धाम जाता हँ
यह श्राध ही हँ की साधारण जीव भी सूरदास, तुलसीदास, मीरा, नानक, कबीर, तुकाराम,ज्ञानेश्वर, वल्लभाचार्य, रामानुजाचार्य, नर्सिंग मेहता., निम्बार्काचार्य, आदि बन जाता हँ, जबकि नास्तिक व्यक्ति अपनी विद्वत्ता के बोझ तले दबकर मरता हँ
यह स्वाभाविक रूप से समझा जा सकता हँ की आस्तिक और नास्तिक जीव संसार में सदा से रहे हँ और सदा ही रहेंगे..
क्योकि अगर ये नास्तिक विचारधारा ख़तम हो जाए तो समझना चाहिए की ये माया ही समाप्त हो जाए, जो की असंभव हँ,
इसीलिए भगवान् ने भी गीता के अंत में अर्जुन को सावधान किया हँ की इस परम पवित्र गीता के ज्ञान को किसी श्रद्धा हीन को मत कहना, कारन की श्रद्धा न होने के कारण वो दोष निकालेगा और ऐसा करते रहने से वो और भी ज्यादा नास्तिक बनता जाएगा
यहाँ यह ध्यान देने वाली बात हँ की केवल भगवान् की भक्ति करने के कारण ही ये मनुष्य जीवन सर्वश्रेस्थ कहलाता हँ वरना अन्य कामो, यथा, ''' आहार, निद्रा, भय ,मैथुन ''' आदि में जानवरों के ही सामान हँ
हर जानवर भी अपना पेट भरना जनता हँ, हर जानवर सोता हँ, हर जानवर को भय आदि भावो का अनुभव होता हँ , हर जानवर सम्भोग आदि करता हँ
इन सब बातो में जानवर और मनुष्य सामान हँ, लेकिन कोई भी जानवर भगवद भक्ति कर भगवत्प्राप्ति नहीं कर सकता , यही इसी बात में मनुष्य जानवरों से श्रेष्ठ हँ, लेकिन, मायाबद्ध होने और भगवान् के प्रिय संत महात्माओं में श्रद्धा न होने के कारण यह जीव अपनी दुर्गति करता रहता हँ और माया इस जीव पर हसती रहती हँ
कितने ही संतो ने इस माया को लताड़ते हुए जीवो को सावधान करने वाले पदों की रचना की हँ लेकिन दुर्देव वश इस जीव की इन सैंट महात्माओं के साहित्य में रूचि नहीं होती बल्कि, इन्हें भोतिक विषयों के ऊपर लिखे साहित्य को पढने की खूब रूचि होती हँ
सचमुच भगवान् की ये माया बड़ी बलवान हँ, जैसे कोई आदमी सर पर बोझा उठाये जा रहा हो और मार्ग में थक जाने पर वो उस बोझे को अपने कंधे पर रख लेता हँ और मुर्खता वश बड़ी राहत महसूस करता हँ, जबकि वो अभी भी उस बोझे को उठा रहा हँ,
ऐसे ही ये माया हँ जो की बड़े बड़े (भोतिक ) विद्वानों, वैज्ञानिको को पता भी नहीं चलने देती की वे कितना दुःख उठा रहे हँ, अपनी बुद्धि के अभिमान में चूर लोग वे लोग ये साबित करने में साड़ी उम्र लगा देते हँ की भगवान् नाम का कोई तत्त्व नहीं हँ
ऐसे ही जीवो को देखकर हमारे गुरूजी ने एक बड़ा सुंदर पद बनाया हँ, वो बहुत लम्बा पद हँ पर उसकी दो laines यहाँ लिखना चाहूँगा
'''' हों ऐसो हो पतित जो पतित न आपहु मान..
ऐसे पतित विचित्र को पावन करहु तब जान ''''
अर्थात संत भगवान् से प्रार्थना करते हँ की भक्त लोगो को मुक्ति दी उसमे क्या बड़ी बात हँ,
बड़ी बात तो तब मानी जाए जब आप ऐसे जीवो को भी शास्वत आनंदप्राप्ति करवाए जो अपने आपको पतित ही न माने, निरंतर भगवान् को गालिया देने वाले लोगो की भगवत प्राप्ति जरुरी हँ ''''''
संत महात्माओं की शेल्ली बड़ी अटपटी होती हँ , सूरदास का एक पद लिखकर अपनी बात ख़तम करना चाहूँगा
'''''' मुझे इन लोगो को देखकर अचम्भा होता हँ जिन्हें श्रीकृष्ण की भक्ति से आस्वादन में आने वाले आनंद का, या श्रीकृष्ण की मधुरता रुपी अमृत फल का त्याग कर देते हँ और माया का विशेला फल चखते हँ
ये मूर्ख मलयगिरी के चन्दन की निंदा करते हँ और शरीर में राख लिपटते हँ
जिसके तट पर हंस विचरण करते हँ उस मान सरोवर को छोड़कर कोवो के स्नान करने योग्य जोहड़ में वे स्नान करते हँ
ये मुर्ख अपने जलते घर को बुझाना छोड़कर कूड़े के ढेर को बुझाते हँ(अर्थात त्रिताप में सारा जीवन जल रहा हँ यह ध्यान में नहीं आता, अज्ञानवश मनुष्य जीवन क्षण क्षण नष्ट हो रहा हँ यह नहीं दीखता भगवान् का आश्रय लेकर भजन करने के बदले सांसारिक भोगो को नष्ट होने से बचाना चाहते हँ वे भोग जिनका एक दिन नाश होना ही नोना हँ )
चोरासी लाख यौनियो में नाना शरीर धारण कर बार बार भ्रमण करता हुआ जीव यमराज की ताड़ना का अधिकारी बनता हँ, अर्थात यमराज के यहाँ जाकर अपने कर्मो के अनुसार नरक को प्राप्त कर वह दिव्या वर्षो तक दुःख उठता हँ या मृत्यु का परिहास पात्र बना रहता हँ
जगत का सब आचरण मृगतृष्णा के जल के सामान मिथ्या हँ उसके संग के लिए ये मायिक मन ललचाया करता हँ
सूरदासजी कहते हँ की ये अभागा मनुष्य क्यों सैंटो की बात मानकर उन श्री हरी की आश्रय नहीं लेता??
लोग सिवाय जातिवाद से अलग कुछ नहीं सोचते, यहाँ तक की स्वयं में नासमझी का दोष हँ लेकिन फिर भी भगवान् में दोष्बुद्धि करते हँ
मनुष्य शरीर धारण कर की गयी उनकी दिव्या लीलाव को न समझने के कारन उनमे कमिय ढूंढते हँ
और तो क्या सारे शास्त्रों में ही अपनी जातिवादी नजर रखकर सबको ब्राह्मणों की चाल रूप से देखते हँ..
आप लोगो से निवेदन हँ की इसे पढ़े और स्वयं का आत्मनिरीक्षण करे.......... बस इसी वजह से मैंने पिछले दो घंटे से ये पोस्ट लिखी हँ...... '''' जय श्री कृष्ण ''

Saturday 27 August 2011

भारत में धर्मनिरपेक्षता मतलब हिन्दुओ की दुर्गति की संवेधानिक व्यवस्था

भाइयो , में आज तक ''धर्मनिरपेक्षता '' का मतलब नही समझ पाया हु.....
आखिर ये धर्मनिरपेक्षता कैसे संभव हँ??
धर्मनिरपेक्षता मतलब, '' किसी भी धर्म का पक्ष ना लेना, धर्म के मामले में बिलकुल निष्पक्ष ...
पर क्या ये संभव हँ?
जरा ध्यान दीजियेगा.......
ये धर्मनिरपेक्षता वह तो चल सकती हँ जहा की दो धर्म बराबर आबादी वाले हो मतलब की 50-50% हो...
लेकिन, वह क्या जहा की एक धर्म की आबादी तो 80% हो और दुसरे की 17% हो...??
स्पष्ट रूप से में भारत में हिन्दू और इस्लाम की बात कर रहा हाउ...
अस्सी प्रतिशत की आबादी वाला हिन्दू धर्म अपने धर्म ग्रंथो द्वारा निर्देशित शाशन प्रणाली, शिक्षा व्यवस्था आदि का हकदार हँ, लेकिन ये यहाँ इस भारत में नही होता क्योकि , 17% की आबाद वाला इस्लाम भी इस देश में हँ...
मतलब साफ़ हँ की 80% आबादी वाला और महज 17% आबादी वाला धर्म दोनों एक ही धरातल पर हँ...
तो ये धर्मनिरपेक्षता कैसे हुई?
ये तो उस 17% की आबादी वाले मजहब की जीत हुई...
जिसने महज 17% की आबादी होने पर भी अस्सी परिताशत की आबादी वाले हिन्दू धर्म की बराबरी वाला अधिकार हासिल कर लिया?...
ये कोण सा न्याय हँ?
ये कैसी निष्पक्षता हँ?
ये धर्मनिरपेक्षता हँ क्या? ये तो सीधे सीधे 17% की आबादी वाले इस्लाम का पक्ष लिया गया हँ?

२.दूसरी बात, ये हिन्दू धर्म वाले तो इस देश के मूल निवासी हँ, पर ये इस्लाम तो बाहरी मजहब हँ...
इस बहरी मजहब को स्वदेशी हिन्दू धर्म की कीमत पर बराबरी करवाना कहा तक उचित हँ?
हिन्दू इस देश की सभ्यता और संस्कृति हँ.. फिर भी उसे इसी देश में बढ़ावा देने की बजाय धर्मनिरपेक्षता के नाम पर पीछे क्यों धकेला जाता हँ?

३. तीसरी बात, ये हिन्दू धर्मं तो लाखो साल पुराना हँ और सीधे भगवान् से चला हुआ धर्म हँ, लेकिन ये इस्लाम तो महज1700-1800 साल पुराना और भगवान् के दूत, या पैगम्बर का चलाया हुआ धर्म हँ...... भला इस्लाम से महान हिन्दू धर्म की बराबरी करवाना कैसे उचित हँ?
भला धर्मनिरपेक्षता के नाम पर महान हिन्दू धर्म और इस इस्लाम को एक ही गिनती में कैसे गिना जा सकता हँ? कैसे इस दोनों की बराबरी करवाई जा सकती हँ?
ये धर्मनिरपेक्षता हँ या खुल्लमखुल्ला धर्मपक्षता??

४. चौथी बात, हिन्दू और इस्लाम को मानने का बड़े से बड़ा फल क्या हँ?
हिन्दू धर्म में तो कहा जाता हँ की स्वर्ग और वह मिलने वाली अप्सराये एक धोखा हँ, वास्तविक सुख केवल भगवान् की प्राप्ति में ही हँ, इन्द्रियों से मिलने वाला कोई भी सांसारिक सुख कभी भी शास्वत शांति और आनंद नही दे सकता, फिर स्वर्ग भी तभी तक मिलता हँ जितनी मात्र के हमारे पुण्य कर्म हँ, स्वर्ग भोगते भोगते पुण्य कर्म ख़तम हो गए तो फिर पृथ्वीलोक पर आकर गधा बिल, सूअर आदि विभिन्न प्रकार की यौनियो में भटकना पड़ेगा... इसीलिए इसीजन्म में भगवत प्राप्ति करके दुखालय मतलब दुखो के इस घर जहा, कामना, क्रोध, लोभ , मोह, आदि मायिक गुणों से छुटकारा पाया जा सकता हँ और सदा के लिए भगवत प्राप्ति कर चिर काल के लिए शाश्वत शान्ति और दिव्या आनंद की प्राप्ति की जा सकती हँ..
इन मायिक गुणों के कारण जीव कभी भी इस लोक में (बिना भगवत प्राप्ति किये )शांति नहीं पाता.
अगर कोई शांति पाता लगता भी हँ तो वो क्षणिक ही होती हँ, पुनः ये मायिक गुण आकर घेर लेते हँ...
हिन्दू धर्म ग्रंथो में तो इस बारे से बहुत ही विस्तार से बताया गया हँ... यहाँ उनके एक थोड़े हिस्से का भी वर्णन नही हो सकता..
और सबसे बढ़कर तो ये की जिसने भगवान् को ही प्राप्त कर लिया तो अब उसे क्या प्राप्त करने को बाकि रहा?
लेकिन...
लेकिन...
लेकिन..... इस्लाम को मानने का फल क्या हँ?
जन्नत में मिलने वाली 72 हूरे. ?????? फिर????? उसके बाद क्या???
ये कैसा मजहब हँ?? जो एक दिन (कभी न कभी ) नष्ट होने वाले फल को देने वाला हँ? और ये फल भी कैसा हँ?
भला ऐसे फल देने वाले इस्लाम की क्या कभी हिन्दू धर्म से बराबरी हो सकती हँ?
अगर नहीं तो ये धर्मनिरपेक्षता जैसी गंदगी इस देश में क्यों फेलाई जा रही हँ?
क्यों हिन्दुओ को उनके अधिकार से वंचित किया जा रहा हँ?
इस धर्मनिरपेक्षता की मार सिर्फ हिन्दुओ पर ही क्यों पड़ रही हँ?

और फिर जब आप धर्मनिरपेक्षता की मतलब अल्संख्यक इस्लाम को भी उतने ही अधिकार देते हँ तो मतलब आप स्पष्ट रूप से इस्लाम के उस सिद्धांत से सहमत हँ की गेर मुसलमान काफिर होते हँ...
मतलब, आप स्पष्ट रूप से हिन्दुओ और दुसरे धर्म वालो को काफिर मान रहे हँ...... फिर ये कोण सी धर्मनिरपेक्षता हँ?
जब इस्लाम खुद में धर्मनिरपेक्षता को नहीं मानता, वो सिर्फ सिर्फ, और सिर्फ इस्लाम को चाहता हँ दुनिया में और धर्मनिरपेक्षो को काफिर कहता हँ तो फिर ये बेहूदगी क्यों फेलाई जा रही हँ देश में????

भारतीय दर्शनों में नास्तिकता


नास्तिकता
नास्तिक शब्द से साधारणतः ऐसे व्यक्ति का बोध होता है, जिसकी प्रचलित धर्मों में से किसी में भी आस्था न हो। कभी-कभी पूजा-पद्धति में अविश्वास या अरुचि के कारण भी हम नास्तिक का विशेषण व्यक्ति-विशेष के गले मढ़ देते हैं। यह नास्तिकता की संकीर्ण व्याख्या है। भारतीय दर्शन-परंपरा में नास्तिक उस व्यक्ति अथवा दर्शन को माना गया है, जो वैदिक संहिताओं को अपौरुषेय तथा स्वतः प्रामाण्य मानने से इंकार करता है। जिसके अनुसार वेदादि ग्रंथ अप्रामाण्य, मानवरचित कृतियां हैं। इनमें वर्णित विचार अद्भुत एवं महत्त्वपूर्ण भले हों, मगर वे एकमात्र और अंतिम सत्य नहीं हैं। अतः अन्य कृतियों की भांति इनकी भी अभीष्ठ समीक्षा-आलोचना संभव है। यह कार्य मानवीय ज्ञान-विज्ञान के लिए सर्वथा हितकारी है। दूसरी ओर वेदादि संहिताओं में पूर्ण आस्था रखने वाले, उन्हें प्रामाण्य, अपौरुषेय, अनादि और आप्तवाक्य मानने वाले विद्वान अथवा दर्शन—भारतीय दर्शन-परंपरा के अनुसार आस्तिक हैं।
आस्तिक एवं नास्तिक दर्शन
इस प्रकार आस्तिक एवं नास्तिक का भेद सीधे-सीधे वैदिक संहिताओं के प्रति क्रमशः विश्वास और अविश्वास से संबंधित है। इसी आधार पर दार्शनिकों को भी श्रोत और तार्किक नामक दो वर्गों में बांटा जाता है। सर्वदर्शन संग्रह के अनुसार एकमात्र वैदिक संहिताओं को आधार मानकर मूलतत्वों का अनुसंधान करने वाले दार्शनिक श्रोत कहलाते हैं। इनमें शंकराचार्य(वेदांत), पाणिनी(योग), जैमिनी(मीमांसा) आदि सम्मिलित हैं। तार्किक वे हैं जो मूलतत्वों के अन्वेषण हेतु तर्क-वितर्क को माध्यम बनाते हैं, जैसे कणाद(वैशेषिक), गौतम या अक्षपाद(न्याय), महावीर स्वामी(जैन), गौतम बुद्ध(बौद्ध), बृहश्पति(चार्वाक) आदि। तार्किकों के लिए वेद स्वतः प्रामाण्य नहीं हैं। इसलिए वे वेदों में आए विचारों की भी तर्कसम्मत व्याख्या-आलोचना करने की नीति के समर्थक हैं। तार्किकों के भी दो भेद हैं। एक वे जो स्वयं को पूरी तरह से तार्किक कहते हैं, किंतु श्रोत(वेदादि ग्रंथ) को अप्रामाण्य मानते हैं। दूसरे वे जो श्रोत को प्रामाण्य मानते हुए उसके भीतर ही भीतर तार्किक विश्लेषण के समर्थक हैं। यथा बादरायण के बृह्मसूत्र की व्याख्या करने वाले रामानुज तथा माध्व संप्रदाय के अनुयायी उपनिषदों को तो प्रामाण्य मानते हैं, किंतु श्रुति वाक्यों को नहीं। आशय यह है कि नास्तिकता सीधे वेदों की प्रामाणिकता के प्रश्न से जुड़ा मसला है, न कि ईश्वर की सत्ता अथवा असत्ता से। वेदों में बहुदेववाद तो है, मगर उसके मूल में जीवन को लेकर मनुष्य की स्वाभाविक जिज्ञासाएं हैं, जो भारत की परिवर्तनशील भौगोलिक परिस्थितियों तथा विविधवर्णी संस्कृति की देन हैं। यत्किंचित उनमें भौतिकवाद भी है, जिसे दर्शन का विस्तार मानना ही उचित होगा। कालांतर में धर्म जब दर्शन के स्थान पर रूढ़ होता गया और वाद-विवाद, दार्शनिक शास्त्रार्थ का अभिप्राय केवल कर्मकांडों के निर्वाह तक सिमटने लगा तो आस्तिकता और नास्तिकता का आशय भी ईश्वर में क्रमशः आस्था अथवा अनास्था तक सीमित होकर रह गया; या जानबूझकर कर दिया गया।
उपर्युक्त वर्गीकरण के अनुसार न्याय, वैशेषिक, चार्वाक, जैन, बौद्ध आदि नास्तिक दर्शनों की श्रेणी में आते हैं। इनमें चार्वाक दर्शन जिसे लोकप्रिय होने के कारण सामान्यतः लोकायत दर्शन भी कहा जाता है, विश्व-संरचना के मूल में किसी भी प्रकार की अध्यात्म व्यवस्था के योगदान का निषेध करता है। इस दर्शन में नास्तिकता के पारंपरिक एवं प्रचलित दोनों रूपों का दर्शन होता है। चार्वाक दार्शनिक आस्थावादी तथा कर्मकांड-प्रिय दार्शनिक-पुरोहितों की अध्यात्मपरकता की खिल्ली उड़ाते हैं। वेद-त्रयी उनकी निगाह में धूर्तों का प्रलाप है—‘त्रयो वेदस्य कत्र्तारो भण्ड-धूर्त-निशाचराः’ अर्थात वेदों के रचियता तीन हैं—भांड, धूर्त और निशाचर। चार्वाकपंथियों के मतानुसार स्वयं को वेदज्ञ कहने-समझने वाले धूर्त बगुला-भगतों ने आपस में ही वेदों को अनृत(झूठा), व्याघातपूर्ण(परस्पर विरोधी) तथा पुनरुक्त(दुहराव) दोषों से प्रदूषित किया है। उल्लेखनीय है कि वेदत्रयी के रूप में ऋक्, सोम, तथा यजुर्वेद को ही वैदिक संहिताओं का गौरव प्राप्त है, जिन्हें वेदानुयायी अपौरुषेय मानते हैं। चैथा ‘अथर्ववेद’ सबसे बाद की रचना है, जिसके अधिकांश श्लोक यजुर्वेद से लिए गए हैं। वेदों की रचना प्रकृति के सान्निध्य में विचरने वाले मुनियों ने अपने सतत चिंतन-मनन के उपरांत की थी, इसलिए इन्हें आरण्यक भी कहा जाता है। यजुर्वेद में जीवन को सुखी बनाने के लिए यज्ञादि का विधान है। कर्मकांड पोषक पुरोहितों ने उसे भी ‘वेद’ मान लिया है।
चार्वाक दर्शन
चार्वाक दर्शन आत्मा-परमात्मा, पुनर्जन्म, लोक-परलोक और मोक्ष आदि मान्यताओं को पूरी तरह नकारता है, जो आस्तिक दर्शनों की आधार मान्यताएं हैं और जिनपर भारतीय धर्म और आध्यात्म परंपरा टिकी हुई है। चार्वाकपंथियों के अनुसार मानव-जीवन का एकमात्र उद्देश्य सुख प्राप्ति है, जीवन जड़पदार्थाें से उसी प्रकार उत्पन्न हुआ है, जैसे पान-सुपारी और कत्थे के योग से लाल रंग बनता है। शरीर के साथ जीवन का पूरी तरह अंत हो जाता है। न आत्मा है, न परमात्मा। न पाप है, न पुण्य। चार्वाक दार्शनिक अवतारवाद और पुनर्जन्म की मान्यताओं को भी स्वीकार नहीं करते। उनके अनुसार सुख पाना ही जीवन का अभीष्ठ है, वह चाहे जैसे भी हो। यदि किसी को घी पीने से सुख मिलता है तो उसके लिए ऋण लेकर भी घी पीना नीति-सम्मत है—
':::'त्सु याव्वजीवेखं जीवेदृणं कृत्वा घृतम् पिबेत् भस्मीभूतस्य देहस्य पुर्नागमन कुतः'
जब तक भी जीवन है, सुख से जीयो, ऋण लेकर भी घी पियो, चिता पर भस्म हो जाने के बाद तो शरीर नष्ट हो जाता, उसके बाद यह शरीर दुबारा नहीं मिलने वाता। धुर व्यक्तिवादी दर्शन होने के बावजूद चार्वाक दर्शन को भारतीय दर्शन-परंपरा में महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। इसका कारण यह है कि इस दर्शन में नास्तिकता को बौद्धिक तर्कों के माध्यम से स्थापित किया गया है। चार्वाक दर्शन उन रूढ़ अंधविश्वासों को सिरे से नकारता है, जो कोरी आस्था या कर्मकांडों के नाम पर धर्म के अंदर घुसपैठ कर जाते हैं। वह कर्मकांड के नाम पर लोगों पर बौद्धिक जड़ता थोपे जाने का घोर विरोधी है तथा इस संसार को सत्य और अस्तित्ववान मानते हुए व्यक्तिमात्र का अपने सामर्थ्यानुरूप सुखोपभोग करने का आवाह्न करता है। आस्तिक दर्शनों की श्रेणी में सांख्य, योग, मीमांसा, वेदांत आदि आते हैं। आधुनिक विचारकों में महर्षि दयानंद, स्वामी विवेकानंद, रामकृष्ण परमहंस ने वेदों की शाश्वतता को स्वीकारा है, अतः इनके द्वारा प्रणीत पंथ, जो वस्तुतः वैदिक परंपरा का ही अनुसंधान हैं, भी आस्तिक दर्शनों की परंपरा में गिने जा सकते हैं। आस्थावादियों की दृष्टि में नास्तिकता को निंदनीय माना जाता है। तथापि उसे धर्म-विरोधी अथवा अधार्मिकता का पर्याय नहीं माना जा सकता। जैन और बौद्ध दर्शन जो नास्तिक दर्शनों की श्रेणी में आते हैं—द्वारा उद्भूत क्रमशः जैन और बौद्ध धर्म न केवल अच्छी तरह पनपे हैं, बल्कि देश-विदेश में उनका खूब प्रसार भी हुआ है। एशिया समेत विश्व के अन्य देशों में भारत की दार्शनिक मेधा की जो उत्कृष्ट छवि निर्मित है, उसके पीछे बौद्धदर्शन का योगदान बहुत बड़ा है।
आस्तिक एवं नास्तिक दोनों प्रकार के दर्शनों का अंतर विशुद्ध वैचारिक है। दोनों ही सत्य की खोज की चाहत में जन्मे हैं। मानव-जीवन को सत्यं-शिवं-सुदरम्’ की स्थिति तक ले जाना, उसे श्रेष्ठ से श्रेष्ठतर बनाना, उनका उद्देश्य है। पहले इनके विभाजन का आधार तार्किक था। इनमें चार्वाक दर्शन भौतिकवादी धारा का प्रतिनिधित्व करता है। कालांतर में मनुष्य की आध्यात्मिक जिज्ञासा के जवाब में पाखंडी धर्माचार्य रूढ़ियां और कर्मकांड थोपने लगे। आस्तिकता और नास्तिकता के भेद को प्रदूषित करने की शुरुआत भी उन्हीं के द्वारा, निहित स्वार्थों के निमित्त की गई। कारण विशुद्ध आर्थिक थे। चूंकि यज्ञादि धर्मकाडों के आयोजन के लिए धन की आवश्यकता पड़ती थी। इसलिए उनका आयोजन वही कर पाते थे, जिनके पास अतिरिक्त संसाधन हों। धीरे-धीरे यज्ञादि कर्मकांड वैभव-प्रदर्शन का प्रतीक बनते गए। पुरोहितों ने भी अपने यजमान को प्रसन्न करने के लिए ऐसे कर्मकांडों का विधान किया, जो उनकी भौतिक महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ति में सहायक हो सकते थे। किंतु वैभव-विलास के अतिरिक्त साधन सीमित लोगों को और तभी उपलब्ध हो सकते थे जब समाज के बहुसंख्यक वर्ग को सामान्य सुखों से वंचित रखा जाए। इस आर्थिक विभाजन के विरोध में अभावग्रस्तता का शिकार बहुसंख्यक श्रमशील वर्ग संगठित न हो, इसके लिए त्याग तथा दान-पुण्य तथा पुनर्जन्म का दर्शन गढ़ा गया। तदनुसार संपन्न वर्ग धन से अपनी निर्लिप्तता दर्शाने के लिए दान करने लगा। पुरोहितों को इससे दुहरा लाभ हुआ। एक तो दान के नाम पर लुटाए गए धन का अधिकांश हिस्सा वे स्वयं हड़प सकते थे। दूसरे इसके माध्यम से बहुसंख्यक श्रमशील वर्ग को त्याग के लिए प्रेेरित कर सकते थे। पारलौकिक सुखामोद के नाम पर उन्हें भरमाना आसान भी था। स्वर्ग की कल्पना भी ऐसे स्थान के रूप में की थी, जहां भौतिक सुखामोदों का अतिरेक है। स्वर्गाधिराज इंद्र अप्सराओं के नृत्य का आनंद लेते हैं। देवता सोमपान करते हैं। खाने के लिए षड्रस भोजन, दूध-दही की अफरात और आरामदेय आवास-व्यवस्था हैं। स्वर्ग का मिथक इतनी सुदंरता से गढ़ा गया कि उसके प्रलोभन के आधार पर इहलौकिक अभाव और दरिद्रता का महिमामंडन करना आसान हो गया। प्रपंची धर्माचार्य जनसाधारण को स्वर्ग के काल्पनिक सुख की चाहत में भरमाने लगे। जनसाधारण के लिए स्वर्ग का भ्रम आज भी पूर्वतः है। इससे उसका ध्यान उन कारणों की ओर नहीं जा पाता, जो उनके जीवन में अभाव और दुर्योग का वास्तविक कारण हैं। विचारणीय है कि सामाजिक कल्याण अथवा दूसरों के सुख के लिए अपने सुख का बलिदान करना नैतिकता की श्रेणी में आता है और मनुष्यता के हित में इसको छोड़ा भी नहीं जा सकता। किंतु पारलौकिक सुखों की चाहत में जीवन के स्वाभाविक सुखों से मुंह मोड़ लेना और छद्माशा में जीवन जीना कोरी अज्ञानता है। गरीबी के महिमामंडन का शिकार ब्राह्मण भी रहे हैं। सामंतवाद के आग्रह स्वरूप वे अपने ही बनाए दुष्चक्र में फंसते गए तथा जीवन में तप और साधना के नाम पर मामूली सुखों से वंचित अभाव का जीवन जीते रहे। ज्ञानार्जन का संपूर्ण अवसर मिलते हुए भी उन्होंने अपने समय और प्रतिभा का उपयोग केवल रट्टा लगाने तथा मंत्रों का सस्वर पाठकर पुरातन को जीवित रखने के लिए किया। इसके परिणामस्वरूप भारत के विगत आठ-नौ सौ वर्षों में एक भी नया दर्शन नजर नहीं आता।
चार्वाक दर्शन के प्रणेता बृहश्पति का कहना है—

:: न स्वर्गो नापवर्गो, वा नैवात्मा पारलौकिकः
नैव वर्णाश्रमादीनां क्रियाश्व फलदायिकाः
अग्निहोत्रं त्रयो वेदात्रिदण्डं भस्मगुण्ठनम्।
बुद्धिपौरुषहीनानां जीविका धातृनिर्मिता।।
पशुश्रेन्निहतः स्वर्ग ज्योतिष्टोमे गमिष्यति।
स्वपिता यजमानेन तन्न कस्मान्न हिंस्यते?
मृतानामपि जन्तूनां श्राद्धं चेत्तृप्तिकारणम्
निर्वाणस्य प्रदीपस्य स्नेहः संवर्धयेच्छिखाम्।। — सर्वदर्शन संग्रह
आशय है कि न तो स्वर्ग है, न अपवर्ग(मोक्ष) और न परलोक में रहने वाली आत्मा। वर्ण, आश्रम आदि की क्रियाएं भी फल देने वाली नहीं हैं। अग्निहोत्र, तीनों वेद, तीन दंड धारण करना और भस्म लगाना—ये बुद्धि और पुरुषार्थ से रहित लोगों की जीविका के साधन हैं। जिन्हें बृह्मा ने बनाया। यदि ज्योतिष्टोम-यज्ञ में मारा गया पशु स्वर्ग जाएगा, जो उस जगह पर यजमान अपने पिता को ही क्यों नहीं मार डालता? मरे हुए प्राणियों को श्राद्ध से यदि तृप्ति मिलती मिले तो बुझे हुए दीपक की शिखा तो तो तेल अवश्य ही बढ़ा ही देगा।
दर्शन का उदय भले ही मनुष्य की बौद्धिक जिज्ञासाओं के कारण हुआ हो, मगर प्रारंभ में ही यह मान लिया गया था कि धर्म में चामत्कारिक संगठन-सामथ्र्य निहित है। जिसके माध्यम से समाज के बड़े वर्ग को शासित और अनुशासित किया जा सकता है। इसलिए समाज के शीर्षस्थ वर्ग ने विचारों को धार्मिक आस्थाओं का रूप देना आरंभ कर दिया। प्राकृतिक घटनाओं के विश्लेषण में तर्क और ज्ञान का स्थान मिथकों ने ले लिया। जनसाधारण की बौद्धिक क्षमता के आगे प्रश्न-चिह्न लगा दिया गया। समाज के बहुतायत को उन धर्मग्रंथों पर श्रद्धा बनाए रखने के लिए कहा गया, जिन्हें पढ़ने की मनाही थी। शीर्षस्थ वर्गों ने अपने निहित स्वार्थों के कारण वैचारिक गत्यात्मकता के स्थान पर कर्मकांडीय जड़ता को बढ़ावा देना आरंभ कर दिया। यथास्थिति को बढ़ावा देने के लिए अनेक धार्मिक प्रतीक तथा मिथक गढ़े गए। नास्तिकता का अर्थांतर जिसे हम उसका अपभ्रंशीकरण भी कह सकते हैं, वैचारिक जड़ता बनाए रखने की इन्हीं साजिशाना कोशिशों का कुफल था। परिणामस्वरूप नास्तिकता जो अभी तक वैदिक संहिताओं की अपौरुषेयता के नकार तक सीमित थी, नीचे फिसलकर धर्म और कर्मकांडों के प्रति अनास्था तक आ गई। दर्शन-सम्मत होने के बावजूद धार्मिक प्रवंचनाओं के चलते नास्तिक होना धर्म-विरोधी, संस्कार-विरोधी मान लिया गया।
नास्तिकता कर्मकांडों, तद्विषयक मिथकों और प्रतीकों की सत्ता पर प्रश्नचिह्न लगाती है। अतः कर्मकांड समर्थकों तथा धर्म की दलाली करने वालों के लिए यह हमेशा ही असहज रही है। अपने समाजीकरण की प्रक्रिया में धर्म को कुछ कर्मकांडों और प्रतीकों की जरूरत पड़ती है। लेकिन उसमें पर्याप्त खुलापन और विमर्श की संभावनाओं का होना भी अनिवार्य है। जब कोई धर्म विचार से पूरी तरह कटकर अपनी समीक्षा के सभी द्वार बंद कर देता है, तो वह अपनी प्रामाणिकता खोने लगता है। दर्शन धर्म को एक वैचारिक आधार एवं तार्किकता प्रदान करता है। वह आत्मालोचना को उतना ही महत्त्व देता है, जितना अपनी वैचारिक प्रतिबद्धताओं को। चूंकि नास्तिकता भी मूलतः एक विचार या कि प्रतिविचार है, इसलिए प्रतिविचार के रूप में सही, नास्तिकता की प्रासंगिकता आज भी उतनी ही है जितनी वह वैदिककाल में थी। जिस नास्तिकता ने विमर्श के लिए प्रतिविचार के रूप में स्वयं को प्रस्तुत किया है, उसको आस्था के नाम पर विमर्श के लिहाज से पूर्णतः खारिज कर देना, अनुचित होगा। प्रसंगवश यह जानना भी आवश्यक है कि अरबों-खरबों वर्ष बने बृह्मांड में पृथ्वी जन्म करोड़ों वर्ष पुरानी घटना है। उसपर आधुनिक मनुष्य का आगमन मात्र बीस लाख वर्ष पहले हुआ। दूसरी ओर विश्व के प्राचीनतम धर्मों में से कोई भी दस-बारह हजार वर्ष से पुराना नहीं है। इसका सीधा-सा अर्थ है कि मनुष्य ने अपने विकासकाल का अधिकांश बिना किसी धार्मिक आस्था के बिताया है। हालांकि इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि लाखों वर्ष पुराने मानवसमाज में भी मनुष्य की अपनी उत्पत्ति को लेकर जिज्ञासाएं अवश्य रही होंगी, मगर वे कैसी थीं, इस बारे में कोई जानकारी आज उपलब्ध नहीं है। इसलिए धर्म का जीवन में तभी तक उपयोग होना चाहिए, जब तक वह हमें संगठित और संस्कारित करता है। मानवमूल्यों की मान्यता किसी भी धर्म अथवा विचार से अधिक है। जब कोई धर्म वैचारिक आधार पर ठहर जाता है, तो उसका परिष्करण आवश्यक हो जाता है। जो धर्म इस प्रक्रिया से बचता है, आत्मालोचना से घबराता है, उसका समाप्त हो जाना ही बेहतर है।
 चार्वाक दर्शन की आलोचना
उल्लेखनीय है कि चार्वाक दर्शन की आलोचना उसकी सुखवादी स्थापनाओं के लिए की जाती है, न कि उसके नास्तिकता संबंधी सोच को लेकर। सुखवाद की आलोचना करते हुए चार्वाक को जनसाधारण का दर्शन बताया जाता है। यह कहकर इसकी खिल्ली उड़ाई जाती है कि यह आमजन खाने-पीने को अधिक महत्ता देता है। यह समाज के शिखरस्थ वर्गों के ओछे सोच को उजागर करती है। भारत में मध्यमार्ग का उदय औद्योगिकीकरण के बाद की घटना है। उससे पहले यहां सामंतवाद था, जिसमें या तो अत्यधिक अमीर थे, अथवा अत्यधिक गरीब। उस समय भी सामज के बीस प्रतिशत शीर्षस्थ वर्गों के अधीन अस्सी फीसदी संसाधन थे। जबकि बाकी अस्सी प्रतिशत को मात्र बीस प्रतिशत संसाधनों से संतोष करना पड़ता था। जाहिर है कि उस बीस प्रतिशत से वे उतना ही पा सकते थे, जो जीवन की न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकें। ऐसे में जीवन की मूलभूत चिंताएं करना इस वर्ग की विवशता थी। असल चार्वाकपंथी तो वे सामंत और पुरोहितादि थे, जो अस्सी फीसदी संसाधनों के बल पर मौज उड़ाते थे। और स्वयं वेदज्ञ होने का दावा भी करते थे। अभावग्रस्त जीवन को उसी तरह से जीना भारत के आमजन की विवशता थी।
बौद्ध और जैन दर्शन भी वेद की अपौरुषैय मानने से इनकार करते हैं। इनमें मृत्योपरांत जीवन को लेकर किंचित मतभेद हैं, मगर उसकी स्थिति और तत्संबंधी संकल्पनाएं लगभग एकसमान हैं। वेदांत जिसे मोक्ष की संज्ञा देता है, जैन दर्शन उसे ‘कैवल्य’ की अवस्था बताता है। बौद्ध दर्शन जीवन-मरण से मुक्ति को ‘निर्वाण की संज्ञा देता है। ‘मोक्ष’ का अभिप्राय जन्म-मरण जिसे भवव्याधि कहा गया है, के चक्र से मुक्त होकर परमतत्त्व में एकलय हो जाना है। ‘कैवल्य’ का शाब्दिक अर्थ ‘केवल वही’ का बोध है, जिसमें साधक अपने आत्मसंज्ञान के आधार पर इतना ऊपर उठ जाता है कि उसको फिर लौकिक चक्र से गुजरना नहीं पड़ता। लगभग यही स्थिति निर्वाण की है। उसका शाब्दिक अर्थ है—बुझा हुआ। जैसे जला हुआ बीज दुबारा नहीं उपजता, उसी प्रकार जो व्यक्ति अपने तप-साधना की दिव्याग्नि में क्षुद्र कामनाओं को भस्म कर देता है, उसको जन्म-जन्मांतर के चक्र से मुक्ति मिल जाती है।
यहां एक प्रश्न स्वाभाविक है कि नास्तिक दर्शन होने के बावजूद जैन और बौद्ध दर्शन क्यों दुनिया-भर में फैले? वेदांत के अलावा सांख्य, मींमासा आदि आस्तिक दर्शन क्यों अपने ग्रंथों से बाहर न आ सके। वास्तव में सांख्य, मीमांसा आदि दर्शन कहीं न कहीं कर्मकांड और ब्राह्मणवाद का पोषण करने वाले थे। इस कारण वे जनसाधारण को अपनी ओर आकर्षित करने में नाकाम रहे। जबकि तर्कसम्मत और व्यावहारिक होने के कारण ही बौद्ध दर्शन को वैश्विक प्रतिष्ठा मिली। इसके समानांतर उपजा जैन दर्शन तर्कसम्मत तो था, किंतु वह व्यावहारिक नहीं था। फलतः उसका प्रभावक्षेत्र, भारत में भी धीरे-धीरे सिकुड़ता गया। न्याय और वैशेषिक दर्शन भारतीय मेधा की धाक जमाने में कामयाब हो सकते थे। परंतु भारतीय विद्वानों ने इनपर अपेक्षानुरूप काम ही नहीं किया। शंकराचार्य के बाद तो पूरा भारतीय चिंतन द्वैत और अद्वैतवाद की निरर्थक वेदांती बहसों में उलझा गया, यह जकड़न इतनी गहरी थी कि वह आज तक उससे बाहर आने को छटपटा रहा हो।
 नास्तिकता ही क्यों?
आवश्यक यह भी है कि जीवन में धर्म का मर्यादित हस्तक्षेप हो। हालांकि कुछ लोग यही कहेंगे कि जीवन को मर्यादित रखने के लिए धर्म का होना जरूरी है। मगर कर्मकांडों और आस्थाओं में जकड़ा हुआ धर्म कभी-कभी इतना ताकतवर भी हो जाता है कि वह मनुष्य के स्वतंत्र सोच को कुंठित करने लगता है। ऐसे में मनुष्य का आचरण धर्म की दृष्टि से कितना ही मर्यादित और आदर्श दिखे, वह अंततः धर्म के लिए ही खतरनाक सिद्ध होता है। हमें यह याद रखना होगा कि धर्म व्यक्ति के लिए होता है, न कि इसका उल्टा। इसलिए जब तक कोई धर्म मानव-मूल्यों की स्थापना, उनका परिष्करण एवं अनुपालन करने में सक्षम है, तभी तक वह ग्राह्यः है। इसलिए धर्म में वैचारिक गत्यात्मकता का होना अत्यावश्यक है। नास्तिकता चूंकि मानवीय संदेहों को गरिमा प्रदान करती है। इसलिए अधार्मिक कहलवाकर भी वह मानवमूल्यों की स्थापना में धर्म की सहधर्मिणी है। दूसरे शब्दों में धर्म के परिष्करण, उसकी पवित्रता एवं प्रतिष्ठा की रक्षा हेतु नास्तिकता उतनी ही आवश्यक है, जितनी आस्था।
आस्थावान व्यक्ति के संदेह विरामावस्था में होते हैं। क्योंकि वह अक्सर अपनी आध्यात्मिक मान्यताओं को लेकर जीवन के प्रति आश्वस्ति का भाव रखता है। इस तरह से नास्तिक का अभिप्राय जीवन के प्रति खोजी रवैया रखना है। दूसरे शब्दों में नास्तिक व्यक्ति वह भी है जिसका अभी तक ज्ञात किसी भी विचार या दर्शन परंपरा से कोई लगाव नहीं है। और वह सृष्टि के रहस्यों की खोज में इनके पार जाने की चाहत रखता है। वह अपने असंतोष और संदेहों को बचाकर रखता है। यही असंतोष और संदेह अंततः धर्म को परिष्कृत और परिपक्व अवस्था की ओर ले जाते हैं। धर्म अपने मूल रूप में साम्राज्यवादी होता है। इसके विपरीत विचार यानी दर्शन की मूल प्रवृत्ति लोकतांत्रिक होती है। वह अपने संदेहों और असंतोष को बचाकर रखता है तथा स्थापित मान्यताओं के विरोध में नए-नए सवाल खड़े करता है। फलस्वरूप विचार और परिष्करण की प्रक्रियाएं साथ-साथ चलती रहती हैं। नास्तिकता का घोर नकार धर्म को लोकतांत्रिक छवि प्राप्त करने से रोकता है, जबकि संदेह को वाजिब सम्मान देने के कारण नास्तिकता विज्ञानसम्मत भी है।....

वेदांग


वेदांग हिन्दू धर्म ग्रन्थ होते हैं। शिक्षा, कल्प, व्याकरण, ज्योतिष, छन्द और निरूक्त - ये छ: वेदांग है।
  1. शिक्षा - इसमें वेद मन्त्रों के उच्चारण करने की विधि बताई गई है।
  2. कल्प - वेदों के किस मन्त्र का प्रयोग किस कर्म में करना चाहिये, इसका कथन किया गया है। इसकी तीन शाखायें हैं- श्रौत सूत्र, गृह्य सूत्र और धर्मसूत्र।
  3. व्याकरण - इससे प्रकृति और प्रत्यय आदि के योग से शब्दों की सिद्धि और उदात्त, अनुदात्त तथा स्वरित स्वरों की स्थिति का बोध होता है।
  4. निरुक्त - वेदों में जिन शब्दों का प्रयोग जिन-जिन अर्थों में किया गया है, उनके उन-उन अर्थों का निश्चयात्मक रूप से उल्लेख निरूक्त में किया ग[[या है।
  5. ज्योतिष - इससे वैदिक यज्ञों और अनुष्ठानों का समय ज्ञात होता है। यहाँ ज्योतिष से मतलब `वेदांग ज्योतिष´ से है।
  6. छन्द - वेदों में प्रयुक्त गायत्री, उष्णिक आदि छन्दों की रचना का ज्ञान छन्दशास्त्र से होता है।

योग


योग भारत में प्रारंभिक पारंपरिक शारीरिक और मानसिक शास्त्रों को सूचित करता है। यह शब्द बौद्ध धर्म और हिंदू धर्म में ध्यानाप्रक्रिया से सम्बंधित है।[1][2] हिंदू धर्म में, योग को षड् दर्शनों (आस्तिक दर्शन) में से एक माना जाता है, जो लक्ष्य की ओर अपनी रीतियों को प्रेरित करता है.[3][4] जैनी धर्म में यह मानसिक, मौखिक तथा शारीरिक सभी गतिविधियों का समावेश करता है.
हिंदू दर्शन में राज योग, कर्म योग, ज्ञान योग, भक्ति योग और हठयोग आदि प्रमुख शाखाएं शामिल हैं.[5][6][7]}राज योग,जोसांख्य परम्परा का हिस्सा है. योग सूत्र पतंजलि में संकलित है और हिन्दू शास्त्र में सिर्फ योगा कहलाता है; जो सांख्य परम्परा का हिस्सा है.[8] उपनिषद् , भगवद गीता,हत् योग प्रदीपिका,शिव संहिता और विभिन्न तंत्रतंत्र{/1d
संस्कृत में योग शब्द के कई अर्थ है [9] और यह शब्द, धातु यूज से बना है, जिसका अर्थ "संचालित करना"," अंसबंध करना " या " सम्मिलित करना" है.[10] इसका अनुवाद " एकजुट करना, सम्मिलित करना, " मिलन"," संयोजन ",के रूप में भी होता हैं.[11][12][13] विदेशों में योग पद का अर्थ साधारणतहठयोग और उसके आसन (मुद्राओं) या व्यायाम के रूपमें लिया जाता है. जो व्यक्ति योग शास्त्र का साधना करता है वह योगी कहलाता है.
वैदिक संहिताओं के अंतर्गत तपस्वियों (तपस) के बारे में ((कल | ब्राह्मण))प्राचीन काल से वेदों में (९०० से ५०० बी सी ई)उल्लेख मिलता है, जब कि तापसिक साधनाओं का समावेश प्राचीन वैदिक टिप्पणियों में प्राप्त है.[15] कई मूर्तियाँ जो सामान्य योग या समाधि मुद्रा को प्रर्दशित करती है, सिंधु घाटी सभ्यता (सी.3300-1700 बी.सी. इ.) के स्थान पर प्राप्त हुईं है. पुरातत्त्वज्ञ ग्रेगरी पोस्सेह्ल के अनुसार," ये मूर्तियाँ योग के धार्मिक संस्कार" के योग से सम्बन्ध को संकेत करती है.[16] यद्यपि इस बात का निर्णयात्मक सबूत नहीं है फिर भी अनेक पंडितों की राय में सिंधु घाटी सभ्यता और योग-ध्यान में सम्बन्ध है.[17]
ध्यान में उच्च चैतन्य को प्राप्त करने कि रीतियों का विकास श्र्मानिक परम्पराओं द्वारा एवं उपनिषद् की परंपरा द्वारा विकसित हुआ था.[18]
बुद्ध के पूर्व एवं प्राचीन ब्रह्मिनिक ग्रंथों मे ध्यान के बारे मे कोई ठोस सबूत नहीं मिलता है,बुद्ध के दो शिक्षकों के ध्यान के लक्ष्यों के प्रति कहे वाक्यों के आधार पर वय्न्न यह तर्क करते है की निर्गुण ध्यान की पद्धति ब्रह्मिन परंपरा से निकली इसलिए उपनिषद् की सृष्टि के प्रति कहे कथनॉ में एवं ध्यान के लक्ष्यों के लिए कहे कथनों में समानता है.[19] यह संभावित हो भी सकता है, नहीं भी.[20]
उपनिषदों में ब्रह्माण्ड संबंधी बयानॉ के वैश्विक कथनों में किसी ध्यान की रीति की सम्भावना के प्रति तर्क देते हुए कहते है की नासदीय सूक्त किसी ध्यान की पद्धति की ओर ऋग वेद से पूर्व भी इशारा करते है.[21]
यह बौद्ध ग्रंथ शायद सबसे प्राचीन ग्रंथ है जिन में ध्यान तकनीकों का वर्णन प्राप्त होता है.[22] वे ध्यान की प्रथाओं और अवस्थाओं का वर्णन करते है जो बुद्ध से पहले अस्तित्व में थीं और साथ ही उन प्रथाओं का वर्णन करते है जो पहले बौद्ध धर्म के भीतर विकसित हुईं.[23] हिंदु वांग्मय में,"योग" शब्द पहले कथा उपानिषद में प्रस्तुत हुआ जहाँ ज्ञानेन्द्रियों का नियंत्रण और मानसिक गतिविधि के निवारण के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है जो उच्चतम स्तिथि प्रदान करने वाला मन गया है.[24] महत्वपूर्ण ग्रन्थ जो योग की अवधारणा से सम्बंधित है वे मध्य कालीन उपनिषद्, महाभारत,भगवद गीता 200 BCE) एवं पथांजलि के योग सूत्र है.(ca. 400 BCE)
पतंजलि के योग सूत्र
मुख्य लेख : Raja Yoga और Yoga Sutras of Patanjali
भारतीय दर्शन में,षड् दर्शनों में से एक का नाम योग है.[25][26] योग दार्शनिक प्रणाली,सांख्य स्कूल के साथ निकटता से संबन्धित है.[27] ऋषि पतंजलि द्वारा व्याख्या किया गया योग संप्रदाय सांख्य मनोविज्ञान और तत्वमीमांसा को स्वीकार करते है,लेकिन सांख्य स्कूल के तुलना में अधिक आस्तिक है, यह प्रमाण है क्योंकि सांख्य के वास्तविकता के पच्चीस तत्वों में ईश्वरीय सत्ताओं को जोड़ी गई है.[28][29] योग और सांख्य एक दुसरे से इतने मिल्झुलते है कि मेक्स म्युल्लर कहते है,"यह दो दर्शन इतने प्रसिद्ध थे कि एक दुसरे का अंतर समझने के लिए एक को प्रभु के साथ और दुसरे को प्रभु के बिना माना जाता है....."[30] सांख्य और योगा के बीच घनिष्ठ संबंध हेंरीच ज़िम्मेर समझाते है:
इन दोनों को भारत में जुड़वा के रूप में माना जाता है,जो एक ही विषय के दो पहलू है.Sāṅkhya[41]यहाँ मानव प्रकृति की बुनियादी सैद्धांतिक का प्रदर्शन,विस्तृत विवरण और उसके तत्वों का परिभाषित,बंधन (बंधा) के स्थिति में उनके सहयोग करने के तरीके,सुलझावट के समय अपने स्थिति का विश्लेषण या मुक्ति मे वियोजन ({{2}{IAST|मोक्ष}})का व्याख्या किया गया है.योग विशेष रूप से प्रक्रिया की गतिशीलता के सुलझाव के लिए उपचार करता है और मुक्ति प्राप्त करने की व्यावहारिक तकनीकों को सिद्धांत करता है अथवा 'अलगाव-एकीकरण'(कैवल्य) का उपचार करता है.[31]
पतांजलि, व्यापक रूप से औपचारिक योग दर्शन के संस्थापक मने जाते है.[32] पतांजलि के योग, बुद्धि का नियंत्रण के लिए एक प्रणाली है,राज योग के रूप में जाना जाता है.[33] पतांजलि उनके दूसरे सूत्र मे "योग" शब्द का परिभाषित करते है,[34] जो उनके पूरे काम के लिए व्याख्या सूत्र माना जाता है:




योग: चित्त-वृत्ति निरोध:
( yogaś citta-vṛtti-nirodhaḥ ) - योग सूत्र 1.2
तीन संस्कृत शब्दों के अर्थ पर यह संस्कृत परिभाषा टिका है. अई.के.तैम्नी इसकी अनुवाद करते है की,"योग बुद्धि के संशोधनों(vṛtti [49])का निषेध(nirodhaḥ [48])है" (citta [50]).[35] योग का प्रारंभिक परिभाषा मे इस शब्द nirodhaḥ [52] का उपयोग एक उदाहरण है कि बौधिक तकनीकी शब्दावली और अवधारणाओं,योग सूत्र मे एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते है; इससे यह संकेत होता है कि बौद्ध विचारों के बारे में पतांजलि को जानकारी थी और अपने प्रणाली मे उन्हें बुनाई.[36]स्वामी विवेकानंद इस सूत्र को अनुवाद करते हुए कहते है,"योग बुद्धि (चित्त) को विभिन्न रूपों (वृत्ति) लेने से अवरुद्ध करता है.[37]






इस , दिल्ली के बिरला मंदिर में एक हिंदू योगी का मूर्ती
पतांजलि का लेखन 'अष्टांग योग"("आठ-अंगित योग") एक प्रणाली के लिए आधार बन गया.
29th सूत्र के दूसरी किताब से यह आठ-अंगित अवधारण को प्राप्त किया गया था और व्यावहारिक रूप मे भिन्नरूप से सिखाये गए प्रत्येक राजा योग का एक मुख्य विशेषता है. आठ अंग हैं:
  1. यम (पांच "परिहार"): अहिंसा, झूठ नहीं बोलना,गैर लोभ, गैर विषयासक्ति, और गैर स्वामिगत.
  2. नियम (पांच "धार्मिक क्रिया"): पवित्रता, संतुष्टि, तपस्या, अध्ययन, और भगवान को आत्मसमर्पण.
  3. आसन:मूलार्थक अर्थ "बैठने का आसन", और पतांजलि सूत्र में ध्यान
सीट का मतलब है बैठा स्थिति को के लिए उपयोग किया जाता है.
  1. प्राणायाम ("सांस को स्थगित रखना"): प्राणा ,सांस, "अयामा ", को नियंत्रित करना या बंद करना. साथ ही जीवन शक्ति को नियंत्रण करने की व्याख्या की गयी है.
  1. प्रत्यहार ("अमूर्त"):बाहरी वस्तुओं से भावना अंगों के प्रत्याहार.
  1. धारणा ("एकाग्रता"): एक ही लक्ष्य पर ध्यान लगाना.
  2. ध्यान ("ध्यान"):ध्यान की वस्तु की प्रकृति
गहन चिंतन.
  1. समाधि("विमुक्ति"):ध्यान के वस्तु को चैतन्य के साथ विलय करना.
इस संप्रदाय के विचार मे,उच्चतम प्राप्ति विश्व के अनुभवी विविधता को भ्रम के रूप मे प्रकट नहीं करता. यह दुनिया वास्तव है. इसके अलावा,उच्चतम प्राप्ति ऐसा घटना है जहाँ अनेक में से एक व्यक्तित्व स्वयं, आत्म को आविष्कार करता है, कोई एक सार्वभौमिक आत्म नहीं है जो सभी व्यक्तियों द्वारा साझा जाता है.[38]
भगवद गीता
मुख्य लेख : Bhagavad Gita
भगवद गीता (प्रभु के गीत),बड़े पैमाने पर विभिन्न तरीकों से योग शब्द का उपयोग करता है. एक पूरा अध्याय (ch. 6) सहित पारंपरिक योग का अभ्यास को समर्पित,ध्यान के सहित, करने के अलावा [39] इस मे योग के तीन प्रमुख प्रकार का परिचय किया जाता है.[40]
  • कर्म योग: कार्रवाई का योग,
  • भक्ति योग: भक्ति का योग,
  • ज्ञाना योग: ज्ञान का योग.
मधुसूदना सरस्वती (b. circa 1490)ने गीता को तीन वर्गों में विभाजित किया है,जहाँ प्रथम छह अध्यायों मे कर्म योग के बारे मे, बीच के छह मे भक्ति योग और पिछले छह अध्यायों मे ज्ञाना(ज्ञान)योग के बारे मे गया है.[41] अन्य टिप्पणीकारों प्रत्येक अध्याय को एक अलग 'योग' से संबंध बताते है, जहाँ अठारह अलग योग का वर्णन किया है.[42]
हठयोग
मुख्य लेख : Hatha yoga और Hatha Yoga Pradipika
हठयोग योग, योग की एक विशेष प्रणाली है जिसे 15वीं सदी के भारत में हठ योग प्रदीपिका के संकलक, योगी स्वत्मरमा द्वारा वर्णित किया गया था.
हठयोग पतांजलि के राज योग से काफी अलग है जो सत्कर्म पर केन्द्रित है,भौतिक शरीर की शुद्धि ही मन की, प्राण की और विशिष्ट ऊर्जा की शुद्धि लती है.[62] [63] केवल पथांजलि राज योग के ध्यान आसन के बदले,,[64] यह पूरे शरीर के लोकप्रिय आसनों की चर्चा करता है.[43] हठयोग अपनी कई आधुनिक भिन्नरूपों में एक शैली है जिसे बहुत से लोग "योग" शब्द के साथ जोड़ते है.[44]



बुद्ध पद्मासन मुद्रा में योग ध्यान में.
प्राचीन बौद्धिक धर्म ने ध्यानापरणीय अवशोषण अवस्था को निगमित किया.[45] बुद्ध के प्रारंभिक उपदेशों में योग विचारों का सबसे प्राचीन निरंतर अभिव्यक्ति पाया जाता है.[46] बुद्ध के एक प्रमुख नवीन शिक्षण यह था की ध्यानापरणीय अवशोषण को परिपूर्ण अभ्यास से संयुक्त करे.[47] बुद्ध के उपदेश और प्राचीन ब्रह्मनिक ग्रंथों में प्रस्तुत अंतर विचित्र है.
बुद्ध के अनुसार, ध्यानापरणीय अवस्था एकमात्र अंत नहीं है,उच्चतम ध्यानापरणीय स्थिती में भी मोक्ष प्राप्त नहीं होता.
अपने विचार के पूर्ण विराम प्राप्त करने के बजाय,किसी प्रकार का मानसिक सक्रियता होना चाहिए:एक मुक्ति अनुभूति, ध्यान जागरूकता के अभ्यास पर आधारित होना चाहिए.[48] बुद्ध ने मौत से मुक्ति पाने की प्राचीन ब्रह्मनिक अभिप्राय को ठुकराया.[49] ब्रह्मिनिक योगिन को एक गैरद्विसंक्य द्रष्टृगत स्थिति जहाँ मृत्यु मे अनुभूति प्राप्त होता है, उस स्थिति को वे मुक्ति मानते है.


बुद्ध ने योग के निपुण की मौत पर मुक्ति पाने की पुराने ब्रह्मिनिक अन्योक्त("उत्तेजनाहीन होना,क्षणस्थायी होना")को एक नया अर्थ दिया; उन्हें, ऋषि जो जीवन में मुक्त है के नाम से उल्लेख किया गया था.[50]
इन्हें भी देखें: Pranayama#Buddhism
योगकारा बौद्धिक धर्म
योगकारा(संस्कृत:"योग का अभ्यास"[51],शब्द विन्यास योगाचारा,दर्शन और मनोविज्ञान का एक संप्रदाय है, जो भारत में 4 वीं से 5 वीं शताब्दी मे विकसित किया गया था.
योगकारा को यह नाम प्राप्त हुआ क्योंकि उसने एक योग प्रदान किया,एक रूपरेखा जिससे बोधिसत्त्व तक पहुँचने का एक मार्ग दिखाया है.[52] ज्ञान तक पहुँचने के लिए यह योगकारा संप्रदाय योग सिखाता है.[53]
छ'अन (सिओन/ ज़ेन) बौद्ध धर्म
ज़ेन (जिसका नाम संस्कृत शब्द "ध्याना से" उत्पन्न किया गया चीनी "छ'अन"}के माध्यम से[54])महायान बौद्ध धर्म का एक रूप है. बौद्ध धर्म की महायान संप्रदाय योग के साथ अपनी निकटता के कारण विख्यात किया जाता है.[45] पश्चिम में,जेन को अक्सर योग के साथ व्यवस्थित किया जाता है;ध्यान प्रदर्शन के दो संप्रदायों स्पष्ट परिवारिक उपमान प्रदर्शन करते है.[55] यह घटना को विशेष ध्यान योग्य है क्योंकि कुछ योग प्रथाओं पर ध्यान की ज़ेन बौद्धिक स्कूल आधारित है.[81]योग की कुछ आवश्यक तत्वों सामान्य रूप से बौद्ध धर्म और विशेष रूप से ज़ेन धर्म को महत्वपूर्ण हैं.[56]

भारत और तिब्बती के बौद्धिक धर्म
योगा तिब्बती बौद्ध धर्म का केंद्र है. न्यिन्गमा परंपरा में,ध्यान का अभ्यास का रास्ता नौ यानाओं , या वाहन मे विभाजित है,कहा जाता है यह परम व्यूत्पन्न भी है.[57] अंतिम के छह को "योग यानास" के रूप मे वर्णित किया जाता है,यह है:क्रिया योग ,उप योग (चर्या ) ,योगा याना ,महा योग , अनु योग और अंतिम अभ्यास अति योग. [58] सरमा परंपराओं नेमहायोग और अतियोग की अनुत्तारा वर्ग से स्थानापन्न करते हुए क्रिया योग,उपा(चर्या)और योग को शामिल किया हैं. अन्य तंत्र योग प्रथाओं में 108 शारीरिक मुद्राओं के साथ सांस और दिल ताल का अभ्यास शामिल हैं.[59] अन्य तंत्र योग प्रथाओं 108 शारीरिक मुद्राओं के साथ सांस और दिल ताल का अभ्यास को शामिल हैं.
यह न्यिन्गमा परंपरा यंत्र योग का अभ्यास भी करते है. (तिब. तरुल खोर ),यह एक अनुशासन है जिसमे सांस कार्य (या प्राणायाम),ध्यानापरणीय मनन और सटीक गतिशील चाल से अनुसरण करनेवाले का ध्यान को एकाग्रित करते है.[60]लुखंग मे दलाई लामा के सम्मर मंदिर के दीवारों पर तिब्बती प्राचीन योगियों के शरीर मुद्राओं चित्रित किया जाया है.
चांग (1993)द्वारा एक अर्द्ध तिब्बती योगा के लोकप्रिय खाते ने कन्दली (तिब.तुम्मो )अपने शरीर में गर्मी का उत्पादन का उल्लेख करते हुए कहते है की "यह संपूर्ण तिब्बती योगा का बुनियाद है".[61] चांग यह भी दावा करते है कि तिब्बती योगा प्राना और मन को सुलह करता है,और उसे तंत्रिस्म के सैद्धांतिक निहितार्थ से संबंधित करते है.

जैन धर्म




तीर्थंकर पार्स्व यौगिक ध्यान में कयोत्सर्गा मुद्रा में.




महावीर के केवल ज्ञान मुलाबंधासना मुद्रा में
दूसरी शताब्दी के सी इ जैन पाठ तत्त्वार्थसूत्र , के अनुसार मन, वाणी और शरीर सभी गतिविधियों का कुल योग है. [62] उमास्वतीकहते है कि अस्रावा या कार्मिक प्रवाह का कारण योग है[63] साथ ही- सम्यक चरित्र - मुक्ति के मार्ग मे यह बेहद आवश्यक है.
[64] अपनी नियामसरा में, आचार्य कुंडाकुण्डने योग भक्ति का वर्णन- भक्ति से मुक्ति का मार्ग - भक्ति के सर्वोच्च रूप के रूप मे किया है.[65] आचार्य हरिभद्र और आचार्य हेमचन्द्र के अनुसार पाँच प्रमुख उल्लेख संन्यासियों और 12 समाजिक लघु प्रतिज्ञाओं योग के अंतर्गत शामिल है. इस विचार के वजह से कही इन्दोलोगिस्ट्स जैसे प्रो रॉबर्ट जे ज़्यीडेन्बोस ने जैन धर्म के बारे मे यह कहा कि यह अनिवार्य रूप से योग सोच का एक योजना है जो एक पूर्ण धर्म के रूप मे बढ़ी हो गयी.
[66] डॉ.हेंरीच ज़िम्मर संतुष्ट किया कि योग प्रणाली को पूर्व आर्यन का मूल था,जिसने वेदों की सत्ता को स्वीकार नहीं किया और इसलिए जैन धर्म के समान उसे एक विधर्मिक सिद्धांतों के रूप में माना गया था
[67] जैन शास्त्र, जैन तीर्थंकरों को ध्यान मे पद्मासना या कयोत्सर्गा योग मुद्रा में दर्शाया है. ऐसा कहा गया है कि महावीर को मुलाबंधासना स्थिति में बैठे केवला ज्ञान "आत्मज्ञान" प्राप्त हुआ जो अचरंगा सूत्र मे और बाद में कल्पसूत्र मे पहली साहित्यिक उल्लेख के रूप मे पाया गया है.[68]

पतांजलि योगसूत्र के पांच यामा या बाधाओं और जैन धर्म के पाँच प्रमुख प्रतिज्ञाओं में अलौकिक सादृश्य है,जिससे जैन धर्म का एक मजबूत प्रभाव का संकेत करता है.
[69][70] लेखक विवियन वोर्थिंगटन ने यह स्वीकार किया कि योग दर्शन और जैन धर्म के बीच पारस्परिक प्रभाव है और वे लिखते है:"योग पूरी तरह से जैन धर्म को अपना ऋण मानता है और विनिमय मे जैन धर्म ने योग के साधनाओं को अपने जीवन का एक हिस्सा बना लिया".
[71] सिंधु घाटी मुहरों और इकोनोग्रफी भी एक यथोचित साक्ष्य प्रदान करते है कि योग परंपरा और जैन धर्म के बीच संप्रदायिक सदृश अस्तित्व है.
[72] विशेष रूप से,विद्वानों और पुरातत्वविदों ने विभिन्न तिर्थन्करों की मुहरों में दर्शाई गई योग और ध्यान मुद्राओं के बीच समानताओं पर टिप्पणी की है: रुषभ की "कयोत्सर्गा"मुद्रा और महावीर के मुलबन्धासन मुहरों के साथ ध्यान मुद्रा में पक्षों में सर्पों की खुदाई पार्श्वनाथ की खुदाई से मिलती जुलती है.
यह सभी न केवल सिंधु घाटी सभ्यता और जैन धर्म के बीच कड़ियों का संकेत कर रहे हैं, बल्कि विभिन्न योग प्रथाओं को जैन धर्म का योगदान प्रदर्शन करते है.[73]
जैन सिद्धांत और साहित्य के संदर्भ
प्राचीनतम के जैन धर्मवैधानिक साहित्य जैसे अचरंगासुत्र और नियमासरा, तत्त्वार्थसूत्र आदि जैसे ग्रंथों ने साधारण व्यक्ति और तपस्वीयों के लिए जीवन का एक मार्ग के रूप में योग पर कई संदर्भ दिए है.
बाद के ग्रंथों जिसमे योग के जैन अवधारणा सविस्तार है वह निम्नानुसार हैं:
  • पुज्यपदा (5 वीं शताब्दी सी इ)
    • इष्टोपदेश
  • आचार्य हरिभद्र सूरी (8 वीं शताब्दी सी इ)
    • योगबिंदु
    • योगद्रिस्तिसमुच्काया
    • योगसताका
    • योगविमिसिका
  • आचार्य जोंदु (8 वीं शताब्दी सी इ)
    • योगसारा
  • आचार्य हेमाकान्द्र (11 वीं सदी सी इ)
    • योगसस्त्र
  • आचार्य अमितागति (11 वीं सदी सी इ)
    • योगसराप्रभ्र्ता
इस्लाम
सूफी संगीत के विकास में भारतीय योग अभ्यास का काफी प्रभाव है, जहाँ वे दोनों शारीरिक मुद्राओं(आसन)और श्वास नियंत्रण (प्राणायाम) को अनुकूलित किया है.[74] 11 वीं शताब्दी के प्राचीन समय में प्राचीन भारतीय योग पाठ,अमृतकुंड,("अमृत का कुंड")का अरबी और फारसी भाषाओं में अनुवाद किया गया था.[75]
सन 2008 में मलेशिया के शीर्ष इस्लामिक समिति ने कहा जो मुस्लमान योग अभ्यास करते है उनके खिलाफ एक फतवा लगू किया,जो कानूनी तौर पर गैर बाध्यकारी है,कहते है कि योग में "हिंदू आध्यात्मिक उपदेशों" के तत्वों है और इस से ईश-निंदा हो सकती है और इसलिए यहहराम है.
मलेशिया में मुस्लिम योग शिक्षकों ने "अपमान" कहकर इस निर्णय की आलोचना कि.[76] मलेशिया में महिलाओं के [76] समूह,ने भी अपना निराशा व्यक्त की और उन्होंने कहा कि वे अपनी योग कक्षाओं को जारी रखेंगे.[77] इस फतवा में कहा गया है कि शारीरिक व्यायाम के रूप में योग अभ्यास अनुमेय है,पर धार्मिक मंत्र का गाने पर प्रतिबंध लगा दिया है,[78] और यह भी कहते है कि भगवान के साथ मानव का मिलाप जैसे शिक्षण इस्लामी दर्शन के अनुरूप नहीं है.[79]
इसी तरह,उलेमस की परिषद,इंडोनेशिया में एक इस्लामी समिति ने योग पर प्रतिबंध,एक फतवे द्वारा लागू किया क्योंकि इसमें "हिंदू तत्व" शामिल थे.[80] किन्तु इन फतवों को दारुल उलूम देओबंद ने आलोचना की है,जो देओबंदी इस्लाम का भारत में शिक्षालय है.[81]

सन 2009 मई में,तुर्की के निदेशालय के धार्मिक मामलों के मंत्रालय के प्रधान शासक अली बर्दाकोग्लू ने योग को एक व्यावसायिक उद्यम के रूप में घोषित किया- योग के संबंध में कुछ आलोचनाये जो इसलाम के तत्वों से मेल नहीं खातीं.[82]
ईसाई धर्म
सन 1989 में, वैटिकन ने घोषित किया कि ज़ेन और योग जैसे पूर्वी ध्यान प्रथाओं "शरीर के एक गुट में बदज़ात" हो सकते है.
वैटिकन के बयान के बावजूद, कई रोमन कैथोलिक उनके आध्यात्मिक प्रथाओं में योगा, बौद्ध धर्म और हिंदू धर्म के तत्वों का प्रयोग किया है.[83]
तंत्र
मुख्य लेख : Tantra
तंत्र एक प्रथा है जिसमें उनके अनुसरण करनेवालों का संबंध साधारण, धार्मिक, सामाजिक और तार्किक वास्तविकता में परिवर्तन ले आते है.
तांत्रिक अभ्यास में एक व्यक्ति वास्तविकता को माया, भ्रम के रूप में अनुभव करता है और यह व्यक्ति को मुक्ति प्राप्त होता है.[84]हिन्दू धर्म द्वारा प्रस्तुत किया गया निर्वाण के कई मार्गों में से यह विशेष मार्ग तंत्र को भारतीय धर्मों के प्रथाओं जैसे योग,ध्यान,और सामाजिक संन्यास से जोड़ता है,जो सामाजिक संबंधों और विधियों से अस्थायी या स्थायी वापसी पर आधारित हैं.[84]

तांत्रिक प्रथाओं और अध्ययन के दौरान, छात्र को ध्यान तकनीक में, विशेष रूप से चक्र ध्यान,का निर्देश दिया जाता है. जिस तरह यह ध्यान जाना जाता है और तांत्रिक अनुयायियों एवं योगियों के तरीको के साथ तुलना में यह तांत्रिक प्रथाओं एक सीमित रूप में है, लेकिन सूत्रपात के पिछले ध्यान से ज्यादा विस्तृत है.
इसे एक प्रकार का कुंडलिनी योग माना जाता है जिसके माध्यम से ध्यान और पूजा के लिए "हृदय" में स्थित चक्र में देवी को स्थापित करते है.[85]
योग का लक्ष्य
योग का लक्ष्य स्वास्थ्य में सुधार से लेकर मोक्श प्राप्त करने तक है.[86] जैन धर्म,अद्वैत वेदांत के मोनिस्ट संप्रदाय और शैवत्व के अन्तर में योग का लक्ष्य मोक्श का रूप लेता है,जो सभी सांसारिक कष्ट एवं जन्म और मृत्यु के चक्र (संसार) से मुक्ति प्राप्त करना है,उस क्षण में परम ब्रह्मण के साथ समरूपता का एक एहसास है.

महाभारत में,योग का लक्ष्य ब्रह्मा के दुनिया में प्रवेश के रूप में वर्णित किया गया है,ब्रह्मण के रूप में,अथवा ब्रह्मण या आत्मन को अनुभव करते हुए जो सभी वस्तुएँ मे व्याप्त है.[87]भक्ति संप्रदाय के वैष्णवत्व को योग का अंतिम लक्ष्य स्वयं भगवन का सेवा करना या उनके प्रति भक्ति होना है, जहां लक्ष्य यह है की विष्णु के साथ एक शाश्वत रिश्ते का आनंद लेना....

योग PART 2 (HISTORY OF YOG )


योग का इतिहास

परिचय-
          योग के बारे में पूर्ण जानकारी प्राप्त करने की दिशा में खोज करते हुए एक शताब्दी से अधिक समय हो गया है, फिर भी कोई योग की उत्पत्ति का सही समय नहीं जान पाया है। भारतीय योग जानकारों के अनुसार योग की उत्पत्ति भारत में लगभग 5000 वर्ष से भी अधिक समय पहले हुई थी। परन्तु कुछ भारतीय विद्धानों का मानना था कि योग की उत्पत्ति लगभग 2500 वर्ष पहले हुई थी। और यह समय भारत में गौतम बुद्ध अर्थात बौद्ध धर्म के संस्थापक का समय काल माना गया है। योग की सबसे आश्चर्यजनक खोज 1920 के शुरूआत में हुई। 1920 में पुरातत्व वैज्ञानिकों ने तथाकथित सिंधु सरस्वती सभ्यता को खोज कर संसार को आश्चर्य में डाल दिया। यह दुनिया की ऐसी संस्कृति थी जो लगभग 300000 वर्ग मील से अधिक क्षेत्र में फैली हुई थी। फिर भी इस संस्कृति का ज्ञान लोगों को इतने दिनों बाद हुआ।
          वास्तव में यह सभ्यता पुरातन युग की सबसे बड़ी सभ्यता थी। मोहनजोदड़ो और हड़प्पा के बड़े नगरों के भग्नावशषों के उन्नत करने वालो ने पाया के मुद्राओं पर अंकित वृत्ताओं की आकृतियां योगी के समान आकृति से मेल खाती है। उन खोजों से मिलने वाले अनेक अन्य प्राप्त वस्तुओं से पता चलता है कि उक्त सभ्यता, परवर्ती हिन्दु समाज और संस्कृति में  आश्चर्यजनक अविच्छिन्नता है। इससे सिद्ध होता है कि योग एक परिपक्व सभ्यता का उत्पाद है जिसका संसार में कोई भी सानी या मेल नहीं है।
योग और सिंधु सरस्वती सभ्यता-
          एक योगाभ्यासी होने के कारण आप प्राचीन और सम्माननीय परम्परा की धारा का हिस्सा हैं, जो सभ्यता का उत्तराधिकारी बनाती है। उन खोजों का श्रेय सुमेर को दिया जाता है और यह उचित भी है। वही आज सिंधु सरस्वती सभ्यता नाम से जानी जाती है। इस सभ्यता का उद्भव सांस्कृतिक परम्परा से है जिसका काल आज से 2700 से 3000 वर्ष पहले माना जाता है। बदले में उसके एक महान धार्मिक और सांस्कृतिक परम्परा को जन्म दिया, जिससे हम हिन्दुवाद के नाम से जानते हैं तथा परोक्ष रूप से बौद्ध और जैन धर्म की भी उत्पत्ति हुई है। विश्व भर में मौजूद सभी सभ्यताओं से भारतीय सभ्यता सबसे पुरानी है। आज अपनी समस्याओं के कारण हमें अपने सभ्यता और संस्कृति के गौरवशाली भूतकाल तथा इससे प्राप्त होने वाली शिक्षा को नहीं भूलना चाहिए। जीवन के विषय में जो अभ्यास लम्बे समय से किए गए हैं, उनसे योगाभ्यासियों को विशेष रूप से लाभ उठाना चाहिए। विशेषकर मन के रहस्यों से संबंधित जो खोज की गई है, उनसे लाभ उठाना चाहिए। भारतीय सभ्यता ने महान दार्शनिक और आध्यात्मिक विभूतियां पैदा की है। उन्होंने उन सभी गूढ़ प्रश्नों के उत्तर दिए है, जो कि आज भी उतने ही महत्वपूर्ण है जितने वे हजारों वर्ष पहले थे।
          योग के इतिहास को मुख्य 4 भागों में बांटा गया है-
  1. वैदिक योग
  2. पूर्ववर्ती प्राचीन योग
  3. प्राचीन योग
  4. परवर्ती प्राचीन योग
  5. वैदिक योग-
          उक्त श्रेणी विभाजन स्थिर चितों के समान है, जो वास्तव में निरंतर गतिशील है। यही ´इतिहास की गति´ है।
          ऋग्वेद और तीन प्राचीन ग्रंथों में पाई जाने वाली यौगिक शिक्षाएं वैदिक योगों के नाम से जानी जाती है। संस्कृति में ´वेद´ का अर्थ ´ज्ञान´ है, जबकि संस्कृत शब्द ऋग का अर्थ है ´प्रशंसा´।  इस प्रकार ´ऋगवेद´ प्रशंसा गीतों का एक समूह है, जिसमें उच्चारण शक्ति की प्रशंसा में प्रशस्ति गीत हैं। वास्तव में संग्रह ही हिन्दु धर्म का मुख्य केन्द्र है, जिसे लगभग एक अरब से अधिक लोग मानते आऐ हैं। इस युग में अन्य तीन वेदों के ग्रंथ भी उदय हुए-
  1. यजुर्वेद (यज्ञ ज्ञान)- यजुर्वेद में उन यज्ञ सूत्रों के बारे में बताया गया है जिनका प्रयोग वैदिक पण्डित इस्तेमाल करते थे।
  2. सामवेद (भजन ज्ञान)- द्वितीय वेद में यज्ञों के समय पढ़े जाने वाले भजन है जिनके उच्चारण से देवता आदि प्रसन्न होते थे।
  3. अथर्ववेद (अथर्वन का ज्ञान)- तृतीय वेद में रहस्यमय जादू-टोने समाविष्ट हैं तथा इसका प्रयोग किसी भी समय किया जा सकता है। इसमें कई शक्तिशाली दार्शनिक मंत्र भी है जिसका संबंध अथर्वन से है, जो एक प्रसिद्ध याज्ञिक पंडित थे और जिन्हें ऐन्द्रजालिक कर्मकांड का सिऋहस्त होने के कारण याद किया जाता है।
         अब तक दिए गए उदाहरणों से स्पष्ट होता है कि वैदिक योग को पुरातन योग के नाम से भी पुकारा जा सकता है क्योंकि प्राचीन भारतीयों के कर्मकांडी जीवन से इनका घनिष्ट संबंध है। इसकी मूल धारण का उद्देश्य था, यज्ञ के साधना से इस लोक तथा अदृश्य आत्मा के संसार को परस्पर जोड़ना तथा श्रम साध्य कर्मकांड करने के लिए यज्ञकर्ताओं द्वारा अपने मन को लम्बे समय तक केन्द्रियभूत करना। इस तरह अपने मन को अपने अन्दर ही केन्द्रित करना योग का मुख्य आधार है।
          इन तीनों वेदों को ज्ञान प्राप्त करने के बाद ही, उसे वैदिक काल के योगी को ´दृष्टि´ प्राप्त होती थी जिससे वे आने वाले समय की परिस्थिति के बारे में अनुभव कर लेते थे और उन्हें जीवन का सत्यता का अनुभूति प्राप्त होती थी। वे वैदिक योग का महान् आचार्य हो जाने पर उसे ´भविष्यवक्ता´ (भविष्य बताने वाले) कहा जाता था। वैदिक युग के ऋषि-मुनि जीवन और परमात्मा के अस्तित्व को देखने की योग्यता रखते थे। उनके भजनों से उनकी अद्भुत शक्ति का ज्ञान होता है, जो हमें आज भी आश्चर्य में डाल देते हैं।
पूर्ववर्ती प्राचीन योग-
          इस योग के इतिहास में द्वितीय शताब्दी का समय लगभग 2000 वर्ष  लम्बा माना गया है जो पूर्ववर्ती प्राचीन योग के अनेक रूपों और वेशों में प्रकट होता है। इसके प्राचीन उद्घाटनों का सीधा संबंध वैदिक यज्ञीय संस्कृति से था। इसका विकास ´ब्राह्मण´ और ´आरण्यक´ के रूप में हुआ था। ´ब्राह्मण´ संस्कृत के ग्रंथ हैं, जिसका संबंध वैदिक स्रोत्रों और कर्मकांड से है। ´आरण्यक´ वे ग्रंथ हैं, जिसका संबंध विशेषकर उन लोगों से है जो जंगल के आश्रम में एकाकी जीवन व्यतीत करते थे।
          वास्तव में योग का वास्तविक रूप ´उपनिषदों´ के समय ही उत्पन्न हुआ था। उपनिषद वे ग्रंथ हैं जिनमें गुह्य पदार्थो के अत्यंत एकाकीकरण का सिद्वांत प्रतिपादित किया गया है। इस तरह के 200 से भी अधिक धर्म ग्रंथ हैं, हालांकि उनमें से एक का ही निर्माण गौतम बुद्ध के समय में हुआ था। इनमें से सबसे बड़ा योग ग्रंथ ´श्रीमद्भगवद् गीता´ है। ´श्रीमद्भागवत गीता´ के बारे में महान समाज सुधारक महात्मा गांधी ने कहा था-
          जब मैं उलझन में पड़ता हूं या मैं अपने काम को न कर पाने के कारण निराश होता हूं और मुझे आशा की कोई किरण दिखाई नहीं देती, तो मैं ´श्रीमदभागवत गीता´ को पढ़ता हूं। इसके अन्दर कोई न कोई ऐसे ‘लोंक मिल जाता है जिससे मेरी शक्तिहीनता या निराशा दूर हो जाती है। यही मेरे जीवन को सफल बनाने में मेरी सहायता करती है। मेरा जीवन हमेशा बाह्य विपत्तियों से ग्रसित रहा है और यदि इन विपत्तियों और परेशानियों का कोई प्रत्यक्ष और गहरा प्रभाव मुझ पर नहीं पडता़ तो इसका कारण ´भागवत गीता´ के द्वारा मिलने वाली प्रेरणा व शिक्षा ही है।´´
          भागवत गीता´ में 700 श्लोक लिखे गये हैं। गीता में लिखे यह श्लोक मानव समाज को संदेश देते हैं कि संसार से बुराई को खत्म करना चाहिए। गीता के अनुसार धर्म रक्षा और समाज कल्याण के लिए बुराई का नाश करना आवश्यक है, चाहें बुराई या अधर्म के मार्ग पर चलने वाले आप के सगे-संबंधी ही क्यों न हो। बुराई के सामने झुकना या उसकी अधिनता स्वीकार करना भगवान की नज़र में सबसे बड़ा अधर्म है और ऐसे व्यक्ति को ´भागवत गीता´ में कायर कहते हैं। अपने वर्तमान रूप में उपलब्ध ´भागवत गीत´ की रचना लगभग 5000 वर्ष पहले हुई थी। ´भागवत गीता´ अपने उत्पत्ति से लेकर आज तक लोगों के जीवन में प्रेरणा देने वाली बनी हुई है। इसका मूल इस बातों पर केन्द्रित है कि जीवित रहने के लिए साधना भी ठीक होनी चाहिए। यदि हम अपने और दूसरों के लिए कठिनाइयां पैदा नहीं करना चाहिए और अस्तिवता की पकड़ से आगे जाना चाहते हैं तो हमारे कर्म भी नम्र होने चाहिए। यह वास्तव में कितना आसान लगता है, परन्तु इसे जीवन में प्राप्त करना बहुत कठिन है।
          पूर्ववर्ती प्राचीन योग अनेक विचार-धाराओं का मिश्रण है और इसकी पुष्टि भारत के दो महान धार्मिक ग्रंथों में पायी जाती है- ´रामायण´ और ´महाभारत´। इन दोनों ग्रंथों में ही ´भागवत गीता´ में समाहित है। इस प्रकार से अनेक योगियों ने गहन ध्यान द्वारा शरीर और मन की खोज की और शरीर व मन के नैसर्गिक सत्यता के बारे में गहन ज्ञान प्राप्त किया।
प्राचीन योग-
          प्राचीन योग को अष्टांग योग या राजयोग के नाम से भी जाना जाता है। प्राचीन योग का वर्णन अपने योग सूत्र में महर्षि पतंजलि ने सारगर्भित रूप से वर्णन किया है। संस्कृत के इस योग ग्रंथ में 195 सूत्र हैं, जिन पर सदियों से बार-बार टिप्पणियां की जा रही है। योग के गम्भीर अभ्यासियों को योग की कला की खोज करनी है और इसके कठोर कथनों से आमना-सामना करना है। ´सूत´ का अर्थ ´धागा´ होता है। यहां इसका अभिप्राय स्मृति सूत से है। यह उन व्यक्ति के स्मृति के लिए है जो पतंजलि के ज्ञान और बुद्धिमत्ता को जानने के बाद आत्मासात करने के इच्छुक है।
          योग सूत्र लगभग 500 वर्ष पहले लिखा गया था। इसकी सबसे पुरानी संस्कृति टीका ´योग भाष्य´ (योग की भाशा) का संबंध व्यास से जोड़ा जाता है। सम्भव हो यह 1500 वर्ष पहले लिखी गई है। इसमें पतंजलि के रहस्यमय कथनों के विषय में मुख्य रूप से स्पष्ट किया गया है।
          कुछ किंवदंतियों के अतिरिक्त पतंजलि या व्यास के विषय में किसी को कुछ ज्ञान नहीं हैं। वैसे यह समस्या अधिकांश योग विशेषज्ञों और अनेक वर्तमान व्यक्तियों के बारे में भी है। अब हमारे पास जो भी ज्ञान है वे इन लोगों के द्वारा दिया गया ज्ञान है। यह किसी साहित्यिक सूचना से अधिक महत्वपूर्ण है जिससे हम उनकी व्यक्तिगत जीवन के बारे में जान सकते हैं।
          वैसे तो ´पतंजलि´ को योगा का जनक (पिता) कहा गया है। उनका विश्वास है कि व्यक्ति प्रकृति और आत्मा का संयुक्त रूप है। उन्हें यौगिक प्रक्रिया का ज्ञान था, जिसके द्वारा वे प्रकृति और आत्मा दोनों तत्वों में पथैक्य लाएं, जिससे आत्मा अपनी सर्वाग शुद्धता में दुबारा स्थापित हो सके। उनके सिद्धांत को रहस्यात्मक द्वैतवाद का नाम दिया गया है। यह एक महत्वपूर्ण बातें हैं, क्योंकि भारत के अधिकांश रहस्यवादि मत किसी न किसी प्रकार के ´अद्वैतवाद´ के पक्षधार है। इस संसार के असंख्य पक्ष और रूप उसी वस्तु के अंतिम विश्लेषण में है अर्थात शुद्ध रूप से आकारहीन परन्तु सचेत सत्ता।
परवर्ती प्राचीन योग-
          परवर्ती प्राचीन योग एक विस्तृत योग है जो अनेक प्रकारों और विचारधाराओं की ओर संकेत करता है। परवर्ती प्राचीन योग महर्षि पतंजलि के ´योग सूत्र´ के समय के बाद उद्भव हुआ है और मूलकृति से भिन्न है। ये प्राचीन योग से भिन्न हैं। इसका कारण यह है कि परवर्ती प्राचीन योग सभी योग की अंतिम एकता की पुष्टि करता है। यही वेदान्त की मूल शिक्षा है। यह दार्शनिक पद्धति उपनिषदों पर आधारित है।
          एक प्रकार से प्राचीन योग का द्वैतवाद एक संक्षिप्त परन्तु सशक्त अंतराल है और अद्वैतवाद शिक्षाओं की धारा में इसका संबंध प्राचीन वैदिक समय से है। इन शिक्षाओं के अनुसार सभी व्यक्ति तथा वस्तु उसी सत्य का पक्ष एवं मार्गिक है। संस्कृत में एक यही सत्य है जो ´ब्रह्म´ और ´आत्मा´ से भिन्न है।
          कई सदियों बाद योग के विकास की ओर खोज करने के क्रम में एक मोड़ आया है। योग के कुछ महान विशेषज्ञों ने शरीर की शक्ति के बारे में खोज शुरू की है। इससे पहले योग और योग के खोजकर्त्ता शरीर की शक्तिओं की ओर कोई ध्यान नहीं देते थे। उनकी इस बात में दिलचस्पी थी कि वे सचेत रूप से शरीर को कैसे छोड़ सकते हैं। उन लोगों का उद्देश्य यही था कि संसार पीछे छोड़ जाएं और आकारहीन सत्य से कैसे एकीकरण हुआ जाए।
          रसायन विद्या के प्रभाव से जो रसायन शास्त्र की आत्मिक उत्पत्ति हुई है, उसे नई पीढ़ी के योगाचायों ने अभ्यासों की एक ऐसी प्रक्रिया का विधान किया जिससे शरीर को ऊर्जा मिलती है और जीवन को लम्बी आयु प्राप्त हो सके। वे शरीर को अमर आत्मा का एक मंदिर मानते थे, न कि ऐसा आधान जिसे कभी भी त्यागा जा सकता है। उन्होंने उन्नत यौगिक विधियों द्वारा इसे ज्ञात करने का कठोर प्रयत्न किया, जिससे भौतिक शरीर का जीव रसायन शास्त्र। शरीर विज्ञान को बदला जा सके और इसके आधारभूत तत्व को इस प्रकार पुनरायोजित किया जाए जिससे यह अमर हो जाए।
          इससे हठयोग का मार्ग प्रशस्त हुआ जिसके अनेक रूप का आज विश्वभर में अभ्यास किया जाता है। इसने तंत्र योग की विभिन्न शाखाओं और धारणाओं को भी मान्यता दिया गया है, जो हठयोग की मात्र एक विद्या है।.....

भारत में विज्ञान का इतिहास और भौतिकवाद


 भारत में विज्ञान का इतिहास और भौतिकवाद

भारत में विज्ञान का इतिहास और भौतिकवाद
( इस ब्लॉग की सदस्या लवली गोस्वामी का यह महत्त्वपूर्ण आलेख समयांतर के मार्च २०११ के अंक में ‘भारत में विज्ञान’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ है। यहां उस आलेख का मूल प्रारूप साभार प्रस्तुत किया जा रहा है। - मोडेरेटर )


भारत में विज्ञान का एक समृद्ध इतिहास रहा है। कई आधुनिक विद्वान ऐसा प्रचार करते हैं कि भारत में समस्त चिंतन धर्म केन्द्रित रहा है और प्राचीन भारत में विज्ञान के प्रति कोई आकर्षण नहीं था। परन्तु रसायन विज्ञान, चिकित्सा शास्त्र और गणित ज्योतिष के उपलब्ध ग्रन्थ इस बात को सिरे से ख़ारिज करते हैं। वहीं कई विद्वान इस मत का समर्थन करते भी नजर आते हैं कि विज्ञान मूलतः वैदिक (प्रकारांतर से उपनिषद) दर्शन के संरक्षण में फला फूला है, (यह उक्ति गणित ज्योतिष के लिए अंशत: सही हो सकती है) ये दोनों ही बातें कल्पना मूलक हैं।

अब प्रश्न यह उठता है की भारतीय विज्ञान विषयक स्रोत साहित्य आज हमें जिस रूप में उपलब्ध है, वह प्रथम दृष्टया अपने उपलब्ध रूप में उपरोक्त दोनों मतों की पुष्टि करता सा प्रतीत होता है। फिर सत्य का अन्वेषण किस प्रकार किया जाए ? क्या विज्ञान के विशुद्ध परलोक विरोधी भौतिकवादी दृष्टिकोण ने मायावादियों को भयभीत नहीं किया होगा ? यदि हाँ तो इसका विज्ञान पर क्या प्रभाव हुआ ? विज्ञान जो पूर्णतः एक भौतिकवादी विषय है, क्या अपने शुद्ध परलोक विरोधी और जनपक्षीय विचारधारा के कारण विज्ञान राज्य पोषित भाववादियों में मान्य हुआ होगा ? हम जानते हैं कि वैज्ञानिक दृष्टिकोण का अर्थ ही कार्य-कारण के बीच स्पष्ट सम्बन्ध का अवलोकन होता है। फिर प्रश्न यह है कि वेदान्त विरोधी दृष्टिकोण के साथ विज्ञान किस प्रकार उत्कर्ष पर पहुंचा। उसमें वेदान्त के तत्व कैसे आए ? प्रारंभिक उत्कर्ष के बाद उसके पतन की क्या वजहें थी ? आज जो विज्ञान विषयक ग्रन्थ हमें उपलब्ध है, वे किस सीमा तक अपने मूल स्वर में हैं ? कई प्रश्न उठते हैं, जिनका उत्तर देने का प्रयास इस लेख में आगे किया गया है।

आज जो विज्ञान विषयक स्रोत साहित्य हमें उपलब्ध है, उस पर विज्ञानेतर विचारों और मतों का उबा देने वाला घालमेल किया गया और कई ऐसे क्षेपक जोड़े गए जो उसके मूल स्वर से एकदम भिन्न और हा्स्यास्पद होने की प्रतीति देते हैं। परन्तु इन ग्रंथों का बुद्धिपूर्वक और सतर्क अध्ययन हमें हमारे पूर्वजों की वस्तुपरक और भौतिकवादी धारणा का स्पष्ट परिचय देता है। इस कथन के पक्षपोषण के लिए अब आगे हम उपलब्ध प्राचीन भारतीय वैज्ञानिक ग्रंथों के मूल स्वर का भौतिक वादी विचार धारा से पोषित होने का का प्रमाण देंगे।

सर्वप्रथम प्रश्न उत्‍पन्‍न होता है, कि प्राचीन भारत में वैज्ञानिक दृष्टिकोण से हमारा तात्पर्य क्या होना चाहिए। हम जानते हैं कि‍ वैज्ञानिक दृष्टिकोण का अर्थ विशुद्ध तात्विक दृष्टिकोण है, जिसमें कारण और परिणाम के मध्य संबंधों के अध्ययन का स्पष्ट विवेचन किया जाता है । प्रकृति, पृथ्वी और मनुष्य के उत्पति के सम्बन्ध में दी गई व्याख्याओं में प्रत्यक्षता को सर्वोपरि रखा जाता है । अब अगला प्रश्‍न यह है कि वैदिक दर्शन में तर्क और जगत की भौतिकता को क्या स्थान प्राप्त है। इस प्रश्न के स्पष्ट विवेचन से ही हमें विज्ञान के मूलाधार का परिचय प्राप्त हो सकता है।

वेदान्त में भौतिकता का स्थान

प्राचीनतम उपलब्ध वैदिक साहित्य ऋग्वेद है। इसमें भाववादी दर्शन के चिन्ह स्पष्ट नहीं हैं। यह अपेक्षाकृत सरल धर्म संक्रमणात्मक गोत्रीय जनजाति सामाजिक व्यवस्था को प्रतिबिंबित करता है। इसमें यज्ञ देवताओं को प्रसन्न करने के लिए भेंट और बलियाँ देने पर सबसे अधिक जोर दिया गया है। इसमें मंदिरों का भी उल्लेख नही मिलता। ऐसी प्रतीति होती है कि यज्ञ घर में ही अथवा किसी खुली जगह पर विशेष वेदिका बनाकर किए जाते थे । प्रतिमाओं का भी कोई स्पष्ट उल्लेख नही है। यह ग्रन्थ मुख्यतः आदिम मनुष्यों के सामूहिक दैनिक जीवन संबंधित कार्यों का उल्लेख करता है जो आज के आधुनिक विद्वानों के लिए आदि पूर्वजों की जीवन शैली और उनके कार्यकलापों को समझने की कुंजी बना हुआ है ।

कहा जा सकता है कि ऋग्वेद कहीं से भौतिकता का विरोधी नहीं प्रतीत होता. भौतिकता विरोधी भाववादी दर्शन की पहली झलक हमें उपनिषद काल में मिलती है. इस समय राज्य सत्ता भी पूर्ण गति से परिपक्वता की ओर अग्रसर थी और राज्य की सत्ता को अक्षुण रखने के लिए सामान्य जनता को परलोक, आत्मा के अस्तित्व , मृत्यु के बाद जीवन, संसार की भौतिकता ( प्रकारांतर से सामाजिकता) और सामाजिक सरोकारों के प्रति घृणा, आदि पर विश्वाश के लिए प्रेरित किया जा रहा था। इसी काल में सभी पुरातन वैज्ञानिक दृष्टिकोण से युक्त ग्रंथो पर भाववादी मत थोपने का प्रयास किया गया। लेख में हम आगे देखेंगे कि इस कार्य में राज्य के संरक्षक/विचारक कितने सफल रहे । इस तथ्य को उद्धृत करने के पीछे मेरा मंतव्य सिर्फ भाववाद से राज्य सत्ता के सम्बन्ध की ओर पाठकों का ध्यान आकृष्ट करने का था।

उपनिषद काल के प्रमुख वेदांती दार्शनिकों ने जगत की भौतिकता को निरर्थक बताने के लिए मुख्यतः दो युक्तिओं का प्रयोग किया है - तर्क बुद्धि, प्रमाण और प्रत्यक्ष ज्ञान (प्रकारांतर से भौतिकता) की अस्वीकृति एवं कार्य-कारण सिद्धांत का खंडन जो विज्ञान का आधार भी है। उपरोक्त कथन के सत्यापन के लिए हम आगे औपनिषद काल के कई प्रसिद्द राज्य पोषित वेदांती दार्शनिकों का इस विषय पर विचारों का विवरण प्रस्तुत करेंगे।

प्रसिद्ध भाववादी विद्वान शंकर का दर्शन जिसे शारीरक नाम से संबोधित किया जाता है एक प्रखर भौतिकता विरोधी दर्शन था। "शारीरक" (वि० [सं० शरीर+कन्-अण्]) संज्ञा में औपनिषद दर्शन का जो परिचय मिलता है वह संसार और भौतिकता के प्रति उनके दृष्टिकोण की स्पष्ट घोषणा है। शारीरक शब्द शरीर शब्द से बना है जिसमे कन् प्रत्यय लगाया गया है, इस प्रत्यय से अपकर्ष का बोध होता है। इसी प्रकार शारीरक शब्द से दोष से भरे शरीर का बोध होता है। वेदान्त (उपनिषद) दर्शन के लिए इस नामकरण का कारण यह है कि शुद्ध चित्त अथवा आत्मा शरीर रूपी दूषित कारा में कैद होती है और मृत्यु मुक्ति है। यह इस दर्शन का मूल स्वर है. यह दर्शन मृत्यु को महिमंडित करता है और ज्ञान के सभी भौतिक स्रोतों को अस्वीकृत। इसके कई उदाहरण दिए जा सकते हैं। याज्ञवल्क्य जो एक प्रमुख वेदांती दार्शनिक थे, बृहदारण्यक उपनिषद (बृहदारण्यक उपनिषद (४) ४२ ) में इस दर्शन के मूल स्वर को एक मरणासन्न व्यक्ति के स्पृहणीय वर्णन द्वारा प्रस्तुत करते हैं, क्योंकि उनका मत था कि वह मरता हुआ व्यक्ति शरीर के बंधन से उत्तरोतर छुटकारा प्राप्त करता जा रहा है। यह एक आग्रही विद्वान का जगत की भौतिकता और संसार के प्रति अवहेलना की दृष्टि का स्पष्ट प्रमाण है।

अब हम तर्क विद्या के प्रति इन दार्शनिकों की घृणा पर दृष्टिपात करते हैं। अद्वैत वेदांत दार्शनिक शंकर स्पष्ट लिखते हैं की तर्क-वितर्क द्वारा तत्व ज्ञान होना असंभव है, तर्क की सार्थकता सिर्फ इतनी है कि उसका उपयोग धर्म शास्त्रों में लिखी गई बातों को सत्य सिद्ध करने के लिए किया जाए। इन्ही विचारों के कारण शंकराचार्य ने तर्क, प्रमाण और अनुभवजन्य प्रत्यक्ष ज्ञान को अविद्या की श्रेणी में रख छोड़ा है (शंकर अध्याय - भव्य)। यहाँ एक तथ्य ध्यान देने योग्य है, शंकर निर्विवाद रूप से प्रतिभाशाली थे। वे सांसारिकता को सिरे से खारिज करने के स्थान पर लौकिकता को स्थान देते हुए पारलौकिकता को सर्वोच्च सत्य बताते हैं। यह उनकी दूरदर्शिता ही दर्शाता है, परन्तु फिर भी वे भाववाद को अपने दर्शन से निकाल नही पाते और अंततः भौतिकता का अस्वीकरण करके पारलौकिकता को एकमात्र सत्य के रूप में स्थापित कर जाते हैं।

वहीं दूसरी ओर प्राचीन नीतिशास्त्र के रचयिता मनु ने तर्क विद्याविदों के विरुद्ध कठोर क़ानूनी नियम लागू करने को कहा है. उन्होंने स्पष्ट घोषणा की है कि किसी भी व्यक्ति को इन नास्तिकों (पाखंडी:), वर्णधर्म/वेद विरुद्ध आचरण करने वालों (विकर्मस्थ:), पाखंडियों (वैडाल वृतिकों) और हेतुकों (तर्क शास्त्रियो) से बात तक नही करनी चाहिए। यहाँ ध्यातव्य है कि स्मृतिकार मूलतः उस वर्ग से सम्बंधित है जिसकी पहुँच सत्ता प्रतिष्ठान तक है, और राज्य सत्ता के दबाव के कारण जनसामान्य उनके द्वारा निर्मित नियमो को मानने के लिए बाध्य है। ऐसे कई उदाहरण दिए जा सकते हैं। इस स्थान पर हम भाववादी/मायावादी दर्शनवेत्‍ताओं और स्मृतिकारों को वैचारिक स्तर पर एक साथ देख सकते हैं। फर्क सिर्फ यह है कि स्मृतिकार तर्क में विश्वाश न करने की बात को राजाज्ञा की तरह "घोषित " करते हैं और दार्शनिक तत्व मीमांसक तर्क करने वालों के प्रति निंदा की भावना को पुष्ट करने का पूर्वाग्रह ग्रसित दार्शनिक आधार खोजते हैं।

संक्षेप में कह सकते हैं कि उपनिषद दर्शन को पूर्ण रूप से राज्याश्रय प्राप्त था और राज्य अपनी सत्ता के संरक्षण हेतु जनसामान्य को भ्रमित करने और अन्धविश्वाश के सृजन के लिए कटिबद्ध था। जहाँ एक तरफ इसके लिए उसने धर्मशास्त्रियों/विचारकों से भौतिकवादी तर्कशास्त्रियों का सामाजिक/वैचारिक बहिष्‍कार करवाया वहीं दूसरी ओर नीतिशास्त्रियों ने तर्कशास्त्रियों के लिए नैतिक आचार संहिता के उलंघन के अपराध में दंड की व्यवस्था की। यह तथ्य उपनिषद दर्शन के भौतिकता विरोधी और प्रकारांतर से जनविरोधी होने का सबसे महत्वपूर्ण प्रमाण है।

चिकित्सा विज्ञान विषयक स्रोत साहित्य

अब हम प्राचीन विज्ञान विषयक स्रोत साहित्य देखते हैं। चिकित्सा विज्ञान के दो प्रमुख प्राचीन ग्रन्थ आज हमारे पास उपलब्ध हैं - चरक संहिता और सुश्रुत संहिता। चरक संहिता में जो चिकित्सा पद्धति है, वह द्रव्य/औषध और अन्नपान पर आधारित है। शल्य चिकित्सा की आवश्यकता केवल कुछ ही स्थानों पर बताई गई है। इसके विपरीत सुश्रुत संहिता मुख्यतः शल्य चिकित्सा पर बल देती है। इन दोनों संहिताओं में प्राचीन चिकित्सकों द्वारा दिए गए कथनों में पर्याप्त विरोधाभाष है जैसे एक स्थान पर लिखा है - देवगोब्राह्मणगुरुवृद्ध सिद्धाचार्यानचेत् (चरक संहिता iv.4.12) अर्थात देवता, गौ, ब्रह्मण, गुरु, सिद्ध पुरुष तथा आचार्य की पूजा करनी चाहिए। पर वहीं दूसरी ओर चिकित्सकों द्वारा एक अन्य परिच्छेद में गौ मांस को भक्षण योग्य खाद्य पदार्थ में रखा गया है और पुष्टिकारक बताया गया है।

ग्व्यं केवलवातेषु पीनसे विषमज्वरे। शुष्ककासश्रमत्य अग्निमांसक्षयहितं च तत्॥
(सुश्रुत संहिता i.४२.३ काशी संस्कृत सीरिज संस्करण)

अर्थात गौ का मांस केवल वातजन्य रोगों में, पीनस रोग में, विषम ज्वर में, सूखी खांसी में, परिश्रम वाले कार्य करने पर, भस्मक रोग में, मांसक्षयजन्य रोग में लाभप्रद होता है। एक अन्य प्रसंग ब्रह्मचर्य का है। जहां एक ओर चरक संहिता ब्रह्मचर्य को मोक्ष के एकमात्र मार्ग की तरह बताती है, वहीं दूसरी ओर पूर्णतः भौतिकवादी दृष्टि से वाजीकरण नाम के अध्याय में, जो चार उप अध्यायों में बँटा है संभोग क्षमता बढ़ने के लिए रसायन सेवन का निर्देश देती हुए स्पष्ट स्थापना देती है की "प्रकामं च निषेवेत मैथुन शिशिरागमे..". यह और इस तरह के कई उदाहरण हैं जिससे साफ जाहिर होता है की इन ग्रंथों की रचना करने वाला कोई भाव वादी तो नही ही हो सकता है।

कालांतर में इस ग्रन्थ की उत्पति वेदान्त से बताने के लिए इनपर बलपूर्वक औपनिषद दर्शन को थोपा गया है। इस ग्रन्थ का मूल स्वर पूर्णतया भौतिकवादी है जिसपर भाववाद का मुल्लमा चढ़ाने की व्यर्थ कोशिशें की गई है। जहाँ वेदांती दार्शनिक शरीर के प्रति अवमानना की भावना रखते हैं और आत्मा को शरीर से पृथक बताते हैं वही चरक संहित स्पष्ट शब्दों में यह उल्ल्लेख करती है की - शरीरं ह्यस्य मूलं, शरीर मूलश्व पुरुषो भवती - अर्थात पुरुष का शरीर ही मूल है और शरीर मूल वाला ही पुरुष है। यहाँ ध्यान देने वाली बात यह है की यह पुरुष कोई प्रत्यय नही है, सुश्रुत संहिता स्पष्ट उल्लेख करती है की यह पुरुष पंचभूतों से बना हुआ है, जो स्पष्टवक्ता आद्य भौतिवादियों लोकायतों के मत से मिलता है।

यहाँ उल्लेखनीय है की लोकायतों का स्पष्ट मत था - पृथिव्यापस्तेजो तत्वानि, अर्थात पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु ये चार ही तत्व हैं, और "भूतान्येव चेतयन्ते.." अर्थात ये चार भूत ही चेतना पैदा करते हैं। ये भौतिकवादी दार्शनिक शरीर को ही आत्मा मानते थे। हमारे प्राचीन चिकित्सक जहाँ रोगों की मुक्ति के लिए प्रतिबद्ध थे और उन्होंने इसके लिए "देव व्यापाश्रय भेषज " के स्थान पर "युक्ति व्यापाश्रय भेषज " को महत्व दिया। युक्ति ( तर्कपूर्ण निर्णय ) को चिकित्सा का आधार बताया। वहीं पूरे वेदान्त दर्शन में दर्शनशास्त्र की निंदा और स्मृतियों में तर्क की निंदा और तर्कशास्त्रियों के बहिष्कार और दंड की घोषणाएं की जाती रहीं। रोग की मुक्ति को कर्म सिद्धांत के विरुद्ध देखा जाता था, इस कारण चिकित्सा कर्म में लगे व्यक्तियों की निंदा करने में उपनिषद रचयिता बढ़-चढ़ कर लगे रहे। यजुर्वेद में चिकित्सा कर्म में लगे मनुष्यों की निंदा की गई। आगे इस प्रक्रिया में आपस्तंब गौतम से लेकर कुल्लूक भट्ट जैसे परवर्ती भाववादी व्याख्याकारों तक सभी ने अपनी पूर्ण प्रतिभा का प्रदर्शन किया।

प्रारम्भिक वेदांत साहित्य अर्थात वेद में चिकित्सक का स्थान

यहाँ एक तथ्य का उल्लेख आवश्यक है की ऋग्वेद में अश्विनी कुमारों की उनकी चिकित्सा कौशल के लिए भूरी भूरी प्रशंसा की गई है और अथर्ववेद का एक महत्वपूर्ण अंश चिकित्सा विद्या से सम्बंधित है। इसमें मुख्यतः तंत्र मंत्र और टोने-टोटकों का उल्लेख है. यह किस प्रकार संभव हुआ होगा इसका उत्तर बहुत ही साधारण है जैसा की पहले उल्लेख किया जा चूका है प्रारंभिक ऋग्वैदिक काल में राज्य व्यवस्था का उदय नही हुआ था और इस कारन भाव वादी दर्शन का कोई स्पष्ट प्रभाव इन प्राचीन ग्रंथो में नही दृष्टिगोचर होता। यह मुख्यतः यजुर्वेद के काल से आरम्भ हुआ, अब जिन अश्विनी कुमारों की स्तुति की गई थी उन्हें हीन दृष्टि से देखा जाने लगा, उन्हें "देवता " के पद से पदच्युत कर दिया गया। यह उस व्यापक सामाजिक राजनीतिक परिवर्तन का परोक्ष प्रमाण है जो राज्यसत्ता और मायावाद (भाव वाद ) की उत्पति से विज्ञान के विरोध को प्रमाणित करती है। यह तथ्य शासक वर्ग का भौतिक वादी विचार धारा से विरोध भी, अप्रत्यक्ष रूप से प्रमाणित करता है।

राज्य सत्ता के उदय के साथ दृश्य बदलता है, जहाँ आदिम चिकित्सकों (अश्विनी कुमारों) के चिकित्सा कौशल की प्रशंसा की जाती थी, वह निंदा में बदलती है। राज्य का उदय चिकित्सकों के प्रति, जो जनसामान्य के हितैषी और कर्म फल और पूर्व जन्म की भाववादी व्याख्या के विरुद्ध थे, घृणा का नया अध्याय खोलता है। स्मृतिकार, धर्म शास्त्रकार यह घोषणा करते हैं कि यह कार्य केवल अंत्यजो को करना चाहिए, वैदिक विचारधारा के समर्थकों को चाहिए की जिस भूभाग में उनकी संख्या अपरिमित हो यह पेशा अपनाने की किसी को सुविधा न दी जाए।

इस प्रकार अथर्ववेद का अंश मुख्यतः इस विद्या का आरंभिक रूप माना जा सकता है। अथर्ववेद के समय चिकित्सा का जो तरीका प्रचलित था वह बहुत ही पिछड़ा एवं टोने टोटके पर आधारित था। वे लोग समाज के आदिम चरण में रह रहे थे और तत्कालीन उपलब्ध ज्ञान के आधार पर रोगों के निवारण के लिए टोने टोटके जादू और तंत्र मंत्र पर आश्रित थे। अथर्ववेद में जिन औषधियों की चर्चा मिलती है वे मुख्यतः शत्रु द्वारा किये अथवा कराये गए जादू टोने से रक्षा हेतु ताबिजो (रक्षा कवचों )के रूप में उपयोग किये जाते थे। यह मुख्यतः इस तथ्य को प्रमाणित करता है की चिकित्सा कर्म उन दिनों अपने पुरातन स्वरुप में था और उन आदिम पूर्वजों में जादुई - धर्मिक क्रियाकलाप के रूप में प्रचलित था। यह जादू टोना मुख्यतः आदिवासी समाज का गुण माना जाता है।

इस ग्रन्थ में आयुर्वेद की प्राचीनतम जड़े मिलने के कारण ही, इसे वेद समूह का अंग मानने से श्रेणीबद्ध समाज के चिंतकों ने इंकार किया। परवर्ती काल के ब्राह्मण ग्रंथो ने भी वेदत्रयी को ही प्रतिष्ठा दी, अथर्ववेद को घृणा की दृष्टि से देखा। तैत्तिरीय संहिता में भी ऋक् (ऋग्वेद ), सामन् (सामवेद ) , यजु: (यजुर्वेद) का ही उल्लेख है। शतपथ ब्रह्मण की भी यही स्थिति है या तो इसे घृणा से देखा गया है या फिर इसका उल्लेख जरुरी नही समझा गया। वर्णाश्रम व्यवस्था के पोषकों ने भी अथर्ववेद को वेद मानाने से सिर्फ इसलिए इंकार किया क्योंकि चिकित्सा शास्त्र की जड़े उस तक जाती थी। जिस चिकित्सा कर्म को इस वेद में स्थान दिया गया, वही इसके श्रेणीबद्ध समाज में असम्मान का कारण बना।

वेदांत दर्शन में इसकी अवमानना इस हद तक बढ़ आई की जब मध्यकाल में भारतीय दर्शन विषयक सर्वमत संग्रह तैयार हुआ तो उसमे स्पष्ट घोषणा की गई कि जो व्यक्ति अथर्ववेद में आस्था रखेगा वह वैसे ही अनादर का भागी माना जायेगा जैसा की नास्तिक या भौतिकवादी माने जाते हैं। इस ग्रन्थ में चावार्कों के सन्दर्भ में यह बात कही गई है कि चावार्कों के अनुसार अथवर्वेद और गांधर्व वेद ही वेद माने जाने चाहिए। वहीं दूसरी और नास्तिकों द्वारा अनुमोदित होने के कारण इस वेद को परवर्ती वेदांती व्याख्याकारों ने घृणा की दृष्टि से देखा और इसकी अवमानना की।

अथर्व वेद के सम्मान के पतन का यह प्रकरण दो तथ्यों को प्रमाणित करता है, नास्तिकों द्वारा अनुमोदित की गई हर कृति को मायावादियों ने या तो नष्ट कर दिया और जिन्हें नष्ट करना संभव न हो सका उन्हें भाव वादी विचारधारा में प्रक्षिप्त करने तथा उनकी अवमानना की घोषणा का पूर्ण प्रबंध कर दिया। सम्पूर्ण उपनिषद साहित्य में एक भी ऐसे ऋषि का नाम नही मिलता तो चिकित्सक हो और विद्या शाखाओं में जिन विद्याओं को प्रतिष्ठा की दृष्टि से देखा जाता था उनमे आयुर्वेद का नाम नदारद है। ज्यों-ज्यों राज्य पोषित वर्ण व्यवस्था सुदृढ होती गई चिकित्सा शास्त्र के प्रति घृणा बढ़ती गई भौतिकवाद को बलपूर्वक नष्ट किया जाता रहा और इसके परिणाम स्वरुप विज्ञान का पूर्ण विनाश हो गया। आयुर्वेद आचार्यों का मानना था की मनुष्य का शरीर उसी सूक्ष्म विश्व का प्रतिनिधित्व करता है जो पंच महाभूतों से निर्मित है, और रोगों का कारण इन्ही आधारभूत द्रवों में असंतुलन की स्थिति है। वे लोग स्पष्ट घोषणा करते हैं कि युक्तिपरक चिकित्सा से ही रोगमुक्ति संभव है और प्रत्यक्षता को वे ज्ञान प्राप्त करने के साधन के रूप में गिनाते हैं।

यहाँ बार बार उपनिषद दर्शन से तर्क और प्रत्यक्ष ज्ञान के विरोध को दोहराने की आवश्यकता नही रह जाती। आधुनिक विद्वान वेदान्त से आयुर्वेद की उत्पति बताते समय इस तथ्य को विस्मृत करके अपनी जनविरोधी मानसिकता का परिचय देने में कोई कोर कसर नही छोड़ते। इसी कारण किसी प्राचीन स्रोत ग्रन्थ के अध्ययन के लिए नीर क्षीर का विवेक अत्यंत आवश्यक है, ग्रंथ के मूल के साथ जो संसोधन किये गए हैं उन्हें ध्यान में रखना ही एकमात्र सूत्र है जो हमें प्राचीन भारत में विज्ञान और उससे भौतिकवाद के सम्बन्ध का स्पष्ट परिचय दे सकता है और प्राचीन भारतीय विज्ञान एवं चिंतन पर लौकिकता विरोधी होने के दाग को धो सकता है। इन स्रोत ग्रंथो में ऐसे कई विरोधाभास भरे पड़े हैं, इन सब पर एक एक कर लिखने की न आवश्यकता है न ही प्रासंगिकता।

आधुनिक खोजकर्ताओं ने प्रमाणित कर दिया है की प्राचीन चिकित्सा सम्बंधित स्रोत ग्रन्थ चरक संहिता के रचयिता चरक कोई एक मनुष्य न होकर प्राचीन भारत का एक घुमंतू (भ्रमणशील) संप्रदाय था (जिन सुधि पाठकों को इस विषय में रूचि है वे देवी प्रसाद चट्टोपाध्याय कृत ग्रन्थ Science and Society in Ancient India का अध्ययन कर सकते हैं)। यह मान्यता इस आधार पर भी सटीक है की अथर्ववेद के एक लुप्त संशोधित संस्करण को चारण वैद्य कहा जाता था। चरक संहिता के उपलब्ध रूप में उसके इतिहास पर दी गई जानकारी के अनुसार एक प्राचीन वैद्य का नाम आता है जो वैज्ञानिक विचारधारा के प्रति पूर्ण समर्पित था। भरद्वाज नामक ऋषि मूलतः एक स्वभाव वादी थे, चरक संहिता भी मूल रूप से द्रव्यों के स्वभाव का अध्ययन करती है। यह स्वभाववाद मुख्यतः इन्ही भौतिकवादी लोकयातियों का मत माना जाता है.इस प्रकार इस तथ्य में कोई संदेह नही कि प्राचीन चिकित्सक मुख्यतः भौतिकवादी थे जिनका वैदिक परम्परा से कोई सम्बन्ध नही था। फिर प्रश्न यह उठता है की ये भौतिकवादी कौन थे ? उनका मूलस्थान क्या था ? इस प्रश्न का उत्तर हम आगे देखेंगे।

तंत्र में देहवाद , भौतिकता और विज्ञान

जिन क्षेत्रों में भाववादी दर्शन और ब्रह्मणवाद का प्रभाव कम था वहां मनुष्य के अस्तित्व के प्रश्न और संसार के उत्पति के प्रश्न को सुलझाने का काम तर्क द्वारा हुआ है। इस तथ्य को प्राचीन भारतीय दर्शनों में से एक सांख्य का अध्ययन करके जाना जा सकता है। हम सब जानते हैं कि शंकर ने सांख्य को अवैदिक मत बताया है। प्राचीन परम्परा के अनुसार सांख्य कपिल के विचारों का प्रतिनिधित्व करता है। कपिल इस देश के उतरी क्षेत्र अर्थात बंगों, मागधों और चेरों के क्षेत्र के रहने वाले थे और यह स्थान गंगा सागर जाने वाले मार्ग पर था। कपिल का ग्राम कपिलवस्तु भारत के उत्तरपूर्व में हैं, इसी क्षेत्र में तंत्र वाद के अवशेष आज तक विद्यमान हैं। सांख्य तंत्रवाद का विकसित रूप है। इस तथ्य का उल्लेख सिर्फ इसलिए किया गया की आगे जब हम तंत्रवाद से विज्ञान के सम्बन्ध का विवेचन करेंगे तो विज्ञान के आधार विचारों को जानने में और उसमे निहित मूल विचारधारा को समझाने में हमें आसानी होगी।

इसी क्रम में सबसे पहले हम भारत में रसविद्या (रसायन शास्त्र ) से तंत्रवाद के सम्बन्ध का अवलोकन करते हैं। "ब्रह्मांडे ये गुणा: संति ते तिष्ठान्ति कलेवरे ..." अर्थात मानव देह सूक्ष्म ब्रह्मांड है। यह निष्कर्ष तंत्रवाद का है। इनके मत को देहवाद इस कारण कहा जाता है क्योंकि इन्होंने देह से इतर किसी सत्ता के अस्तित्व को नाकारा है। शरीर में इसी रूचि के कारण भौतिकवादी विज्ञान में योगदान करने में सफल हो पाए जैसे रसायन विज्ञान , आयुर्विज्ञान विज्ञान आदि। जबकि देह की उपेक्षा के कारन भाववादी शरीर रचना ज्ञान एवं द्रव्य ज्ञान के प्रति उदासीन बने रहे। यहाँ यह तथ्य ध्यातव्य हो कि भारतीय रसायन विज्ञान के पौराणिक ग्रन्थ इन्ही प्राचीन भौतिकवादियों के लिखे हुए हैं।

रसायन शास्त्र की दृष्टि से सबसे अधिक महत्वपूर्ण ग्रन्थ ईसवी सन की आठवीं शताब्दी का है जिसका नाम है रसरत्नाकर। विद्वानों ने ऐसे और भी कई ग्रंथो की सूचि बनाई है जिनमे रसरत्नाकर, रसाणर्व, काक चन्देश्वरी मततंत्र, रसेन्द्रचिंतामणि आदि हैं। तांत्रिक रसविज्ञानियों ने न केवल रसायन के ये सुप्रसिद्ध ग्रन्थ लिखे बल्कि उन्होंने वास्तविक प्रयोगशालाओं में कई यंत्रों का अविष्कार भी किया जैसे दोल यंत्रम, स्वेदनी यंत्रम, पातन यंत्रम, धूप यंत्रम , कोष्ठी यंत्रम, विद्याधर यंत्रम, तिर्यक पातन यंत्रम आदि हैं। यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है की तांत्रिक रस विज्ञानियों ने न केवल इनका अविष्कार किया वरन इनके उपयोग को सैद्धांतिक रूप भी दिया और यह स्पष्ट घोषणा भी की - उपरोक्त प्रयोग मैंने अपने हांथो से किये हैं, ये केवल सुनी सुनाई बातो को आधार बना कर नही लिखे गए हैं और इनका उपयोग जन कल्याण के लिए किया जायेगा (History of chemistry in ancient and medieval India - लेखक - Priyadaranjan Rây, Prafulla Chandra Rāy)। इस वाक्य से दो बाते स्पष्ट होती है प्रथम तो यह की प्रयोगकर्ता तांत्रिक ने प्रत्यक्ष ज्ञान के आधार पर अपने निष्कर्ष लिखे हैं, द्वितीय इस वाक्य में उसकी जनता के प्रति सेवा भाव और प्रतिबद्धता का स्पष्ट संकेत प्राप्त होता है।

हम जानते हैं कि भारत में मायावादियों/प्रत्यय वादियों के विरुद्ध और पदार्थ से जगत की उत्पति के सिद्धांत के समर्थक मुख्यतः तीन मतावलंबी थे। प्रथम लोकायत मत के प्रतिनिधि जो बाद में चार्वाक के नाम से प्रसिद्द हुए। वे न तो अदृष्ट में विश्वाश करते थे न ही भौतिक विश्व से अलग किसी परलोक को मान्यता देते थे। यह एक पूर्णत भौतिकवादी सिद्धांत है जिसके अनुसार चार तत्व (भूत ) पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु से पूरे संसार की रचना हुई बताई जाती है। ये उनकी स्पष्ट मान्यता थी की मानव शरीर का निर्माण भी संसार की तरह इन्ही चार महाभूतों से होता है। द्वितीय, प्रधान अथवा प्रकृति का सिद्धांत, यह सांख्य मत के नाम से प्रसिद्ध है जो अवैदिक और लोकायत की अपेक्षा सुस्पष्ट तरीके से भारतीय भौतिकवादी चिंतन प्रणाली के अनुरूप है। आधुनिक विद्वानों ने इसका उद्भव तंत्र से बताया है, शंकर इसके खंडन के क्रम में वेदान्त दर्शन का सबसे प्रमुख विरोधी बताने की स्थिति में पहुँच जाते हैं। तृत्तीय मत परमाणु वादियों का माना जाता है जिनमे मुख्यतः न्याय-वैशेषिक प्रमुख हैं। इनमे लोकयातिकों को मूलतः जनसामान्य का दर्शन माना जाता है और लोकायत मत और परवर्ती भौतिकवादी दर्शन सांख्य का उद्भव तंत्र से हुआ माना जाता  है।

विज्ञान के संरक्षक के रूप में नास्तिक भौतिकवादी

वेदान्त की प्रत्ययवादी विचारधारा में विज्ञान के लिए कोई जगह नही थी। भारतीय वेदांती आदर्शवादियों ने जहाँ स्पष्ट घोषणा की है की विश्व के होने का एकमात्र कारण कोई अलौकिक शक्ति है। अर्थात विशुद्ध चित्त ही अंतिम सत्य है। इसे कई संज्ञाओं से नवाजा गया है जैसे अंत:करण, परम ब्रह्मा, चेतना पुंज आदि। भारतीय मायावादी/प्रत्ययवादी चेतना या विचार को ही विश्व के होने का कारण मानते हैं। यह संज्ञाएँ भिन्न भिन्न आदर्शवादी दार्शनिकों के लिए अलग - अलग हो सकती है परन्तु हमारा ध्यान इस तथ्य पर होना चाहिए की जिन दार्शनिकों ने विशुद्ध रूप से प्रत्यय (विचार ) को जगत का आधार बताया और जगत की भौतिकता को तिरस्कार-पूर्ण दृष्टि से देखा उन सब में कौन सी धारणा सर्वनिष्ठ है? उत्तर साफ है जब किसी विचार को जगत का आधार बताना हो तब जगत की भौतिकता को बलपूर्वक नकारना आवश्यक हो जाता है। यहीं इस तथ्य को भी स्पष्ट समझा जा सकता है की जब राजनितिक कारणों से कोई दर्शनवेता अनुभूत जगत को मिथ्या साबित करने का प्रयास करे तो उसका सर्वाधिक तीव्र प्रहार इसी भौतिकता पर होगा, और इसके लिए वह प्रत्यक्षता और तर्क की विश्वसनीयता पर प्रश्न उठाएगा।

भारतीय भाववादी दार्शनिकों ने इसी युक्ति का प्रयोग किया भी है जैसा की हम लेख में पहले देख चुके हैं। अनुभव, विवेक और तर्क को अस्वीकार करते हुए भारतीय मायावाद के समर्थक भी रहस्यात्मक भाव समाधी की आत्म मुग्धता और विभ्रम की स्थिति को अंतिम आध्यात्मिक सत्य बताते हैं यह सर्वज्ञात तथ्य है एवं यहाँ हमारे विवेचन का विषय नही है इन्द्रियों और संवेदनो द्वारा जो अनुभूत करते हैं वह निर्विवाद रूप से जगत की भौतिकता और सत्यता को प्रमाणित करता है। अब सवाल है फिर वे कौन से लोग थे जिन्होंने विज्ञान को तमाम विरोधों और उग्र प्रतिक्रियात्मक कार्यवाही के बावजूद जीवित रखा ? इसका जवाब साफ है वे भौतिकवादी ही थे जिन्होंने देहवाद को प्रश्रय दिया और विज्ञान के उत्कर्ष को सुनिश्चित किया। परन्तु जब आदिम सामुदायिक गण-लोकतंत्र व्यवस्था का पतन हुआ एवं राज्य सत्ता का प्रभाव बढ़ा और मायावाद को प्रतिष्ठा हासिल हुई और विज्ञान को प्रश्रय देने वाली विचारधारा शेष न रही, तब वैज्ञानिक ग्रंथों में धर्म और परलोक के कचड़े को ठूंस कर उसे वेदांती रूप देने का प्रयास किया गया। यह राज्य सत्ता के बंधक के रूप में विज्ञान और भौतिकवादियों के विचारों को दिया गया दंड था , जो "विजेता के न्याय" को परिभाषित करता है। यहाँ ध्यातव्य है की महाभारत के शांति पर्व (अध्याय -१०७ ) में गणों के लोक तंत्र का उल्लेख युधिष्ठिर के किसी प्रश्न के उत्तर में भीष्म करते हैं और अथर्व वेद में भी इसी लोकतंत्र का गुणगान करते हुए आदेश दिया गया है ..
           हे राजन, तुझे राज्य के लिए सभी प्रजाजन चुने एवं स्वीकारें
          (अथर्व वेद ,तृतीय कांड, सूक्त ४ ,श्लोक २ )

कहा जा सकता है की अथर्ववेद के समाज के सम्मानीय तबके में हुई अवमानना के पीछे शुद्ध राजनीतिक कारण थे जब लोकतंत्र का पूर्णतः विनाश हुआ जनता के हित को परिभषित करती भौतिकवाद को प्रश्रय देती हर कृति का मूल स्वर या तो भाव वाद में प्रक्षिप्त कर दिया गया या जिन्हें प्रक्षिप्त न किया जा सके उन्हें समूल नष्ट कर दिया गया। लोकायत के कई नष्ट ग्रन्थ जिनका उल्लेख कई बौद्ध ग्रंथों में खंडनार्थ किया गया है इसका ज्वलंत उदहारण है।

विज्ञान एक बंधक के रूप में

विज्ञान राज्यपोषित भाववाद के सामने किस प्रकार पंगु हुआ इसका एक उदाहरण हमें खगोल विज्ञान (ज्योतिष) के दो प्रसिद्ध विद्वानों वराहमिहिर और ब्रह्मगुप्त के स्रोत साहित्य के अध्ययन से प्राप्त होता है। सर्वज्ञात तथ्य है कि अलबरुनी (दसवीं शताब्दी) ने भारत आकर इन दोनों के विज्ञान विषयक स्रोत साहित्य का अध्ययन किया था और उसने वराहमिहिर की तुलना में ब्रह्मगुप्त को अधिक बड़ा विद्वान बताया था। अलबरुनी स्पष्ट लिखते हैं कि भारतीय गणित ज्योतिषियों को सूर्यग्रहण और चन्द्रग्रहण के वैज्ञानिक कारण का ज्ञान था (एडवर्ड सची  ii.107। हिंदी अनुवाद रजनीकांत शर्मा, आदर्श हिंदी पुस्तकालय - 1967)। उसने लिखा - ‘भारतीय वैज्ञानिक जानते हैं की पृथ्वी की छाया से चंद्रग्रहण और चन्द्र की छाया से सूर्यग्रहण होता है। इसी तथ्य पर उन्होंने ज्योतिष सम्बन्धी ग्रंथों में अपने परिसंख्यानों की नीव रखी है।’ अलबरुनी को यह बात बहुत विचित्र प्रतीत होती है कि एक तरफ ये दोनों विज्ञानी प्रत्यक्ष ज्ञान और कार्य - कारण सम्बन्ध के आधार पर अपने निष्कर्ष लिखते हैं और दूसरी तरफ तात्कालीन समाज में प्रचलित ग्रहण सम्बन्धी पुरोहित पोषित मिथकों जिनमें ग्रहण का कारण राहु-केतु को बताया गया है, को समर्थन और सम्मान देते नजर आते हैं।

अलबरुनी कहते हैं - ‘मिथकीय कथा का समर्थन करने से पहले वाराह मिहिर खुद को एक ऐसे विज्ञानी के रूप में सामने लाते हैं, जो इस मिथकीय कथा को न मानकर शुद्ध वैज्ञानिक दृष्टि से कार्य-कारण सम्बन्ध के आधार पर ग्रहण के वैज्ञानिक कारण की विवेचना करते हैं, परन्तु उसके ठीक बाद वह उस मिथकीय कथा का उल्लेख भी करते हैं।’ इसका कारण बताते हुए अलबरुनी कहते हैं - ‘वराह मिहिर क्योंकि ब्राह्मणों थे और खुद को उनसे अलग न कर पाने की दशा में उसने वैज्ञानिक विवेचन को मिथकीय आवरण से ढंका है।’ अल बरुनी आगे कहते हैं - ‘फिर भी वे दोष देने योग्य नही हैं क्योंकि उनकी विवेचन सत्य के दृढ आधार पर खड़ा है और तमाम अन्य बातों के बावजूद वे स्पष्ट रूप से सत्य कह देते हैं।’ यह छठी शताब्दी का आरम्भिक काल माना जाता है। ब्रह्मगुप्त के काल तक राज्यसत्ता की जड़ें और मजबूत हो चुकी थीं और विज्ञान पर अवैज्ञानिक मायावादी विचारधारा का दबाव भी बहुत बढ़ चुका था।

इस काल में विज्ञानेतर विचारधारा के समर्थक यह समझ चुके थे कि अगर विज्ञान का प्रभाव बढ़ता रहा प्रकृति की घटनाओं को  कार्य-कारण सम्बन्ध और प्रत्यक्ष ज्ञान के आधार पर विवेचित जाता रहा तो अन्धविश्वास और पारलौकिकता की अवधारणा को विज्ञान से चुनौती मिलनी ही है  और इससे उनके द्वारा अर्थोपार्जन एवं राज्य सत्ता के संरक्षण हेतु फैलाये गए मायावाद को हानि हो सकती है। इस कारण वे बहुत सतर्क हो चुके थे और विज्ञान के दमन के लिए प्रतिबद्ध भी। इसीलिए ब्रह्मगुप्त ने अपनी अनुपम कृति ब्रह्म सिद्धांत की प्रारंभिक पंक्तियों में ही प्रतिविचार धारा को मान्यता प्रदान की।

कई आधुनिक विद्वानों का मत है कि हो सकता है यह अंश बाद में क्षेपक के रूप में जोड़े गए हों। अलबरुनी का स्पष्ट मत है कि ब्रह्मगुप्त जो इस कृति की रचना के समय मात्र ३० वर्ष के थे, ने अपनी प्राणों की रक्षा के लिए विज्ञानेतर विचारधारा के सामने आत्म समर्पण कर दिया हो। यहाँ तक कि अलबरुनी इस घटना की तुलना सुकरात को दिए गए विष से करते हैं जो उन्हें धर्म सत्ता के विरुद्ध जाने के अपराध में दिया गया था। यह स्थिति गणित ज्योतिष और ज्यामिति की थी जो किसी न किसी रूप से वेद विद्या से सबद्ध रही थी। जब वि‍ज्ञानेतर विचारधारा का प्रभाव इन विद्याओं पर इतना भयंकर पड़ा तब चिकित्सा शास्त्र जैसा विषय जो मूलत: घुमंतू जनजातियों के द्वारा विकसित था और जनता के प्रति अपनी प्रतिबद्धता की स्पष्ट घोषणा किये बैठा था, उस पर पड़े प्रभाव की कल्पना सहज ही की जा सकती है। आज उपलब्ध चिकित्सा विज्ञान एवं रसविज्ञान सम्बन्धी स्रोत साहित्य के अध्ययन से हम स्पष्ट रूप से उन पर आरोपित विज्ञानेतर कचरे की जाँच और पहचान कर सकते हैं।

यह साबित करने के लिए इतने प्रमाण पर्याप्त होंगे कि विज्ञान न कभी धर्म की छत्रछाया में था और ना ही प्राचीन भारतीय ज्ञान को प्रतिविचारधरा द्वारा आरोपित सिद्धांतों के आलोक में देखा जाना चाहिए। वे स्पष्टवादी भौतिकवादी ही थे जिन्होंने प्राचीन भारत में विज्ञान की लौ को तमाम विरोधों और अपमान के बाद भी जलाए रखा। वे नास्तिकता को पोषित करते रहे और विज्ञान इसी आलोक में तब तक फूलता-फलता रहा जब तक राज्य सत्ता इसके दमन के लिए पूर्ण प्रतिबद्ध न हुई। अंततः विज्ञान का गला इसी मायावादी विचारधारा के नुमाइंदों ने राज्यसत्ता के पूर्ण समर्थन के आलोक में घोंटा और राज्य सत्ता के पूर्ण विकास के साथ ही विज्ञान का भी पूर्ण रूप से पतन हो गया। यह वही वक्त था जब राज्य सत्ता अपने पूर्ण दमनकारी अवस्था में थी और जनतंत्र का पूर्ण विनाश हो चुका था। इसी सन्दर्भ में हम यह भी देख सकते हैं कि जिन देशों में लोकतंत्र भारत से पहले आया वहां विज्ञान का स्तर आज भारत के सापेक्ष अधिक आगे है।


विज्ञान मूलतः जनकल्याण और मानवता वाद की पैरवी करता है इसी प्रकार कहा जा सकता है विज्ञान को फलने-फूलने के लिए लोकतान्त्रिक और सजग समाज की आवश्यकता होती है परन्तु शायद यह हमारा दुर्भाग्य ही है की आज भी भारत में पुनरुत्थानवादी ताकतें विज्ञान के भौतिकवादी दृष्टिकोण का पुरजोर विरोध कर रही हैं। कई अवैज्ञानिक मतों को और अंधविश्वासों को विज्ञान का नाम दिया जा रहा है। प्रत्यक्षता की अवहेलना की जा रही है और वैज्ञानिक सोच के प्रति घृणा फ़ैलाने, विज्ञान को गरीबी, विनाश, युद्ध आदि के लिए दोषी ठहराने का प्रपंच रचा जा रहा है। आधुनिक ज्ञान जो पुरातन का ही विकसित स्वरुप है, की अवहेलना घातक हो सकती है. भारत को कभी अपनी वैज्ञानिक खोजों के लिए विश्व भर में प्रतिष्ठा प्राप्त थी। यदि हम उस प्रतिष्ठा को वापस पाना चाहते हैं तों हमें भ्रमों और अन्धाविश्वासों की तथाकथित वैज्ञानिक व्याख्याओं से परहेज करना चाहिए और प्रत्यक्षता और कार्य कारण समबन्ध के आधार पर किये गए वस्तुगत विवेचन को ही मान्यता देनी चाहिए शायद तब ही हम भारत की प्रतिष्ठा को वापस पा सकेंगे।....

ज़िंदगी को मुश्किल बनानेवाले 7 अचेतन विचार


हम लोगों में से बहुत से जन अपने मन में चल रहे फालतू के या अतार्किक विचारों से परेशान रहते हैं जिसका हमारे दैनिक जीवन और कामकाज पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है. ये विचार सफल व्यक्ति को असफल व्यक्ति से अलग करते हैं. ये प्रेम को नफ़रत से और युद्ध को शांति से पृथक करते हैं… ये विचार सभी क्लेशों और युद्दों की जड़ हैं क्योंकि अचेतन एवं अतार्किक विचारधारा ही सभी युद्धों को जन्म देती है.
इस पोस्ट में मैं ऐसे 7 अतार्किक व अचेतन विचारों पर कुछ दृष्टि डालूँगा और आशा करता हूँ कि आपको इस विवेचन से लाभ होगा (यदि आप इनसे ग्रस्त हों, तो:)
इस पोस्ट में मैं ऐसे 7 अतार्किक व अचेतन विचारों पर कुछ दृष्टि डालूँगा और आशा करता हूँ कि आपको इस विवेचन से लाभ होगा (यदि आप इनसे ग्रस्त हों, तो:)
1. यदि कोई मेरी आलोचना कर रहा है तो मुझमें अवश्य कोई दोष होगा.
लोग एक-दूसरे की अनेक कारणों से आलोचना करते हैं. यदि कोई आपकी आलोचना कर रहा है तो इसका मतलब यह नहीं है कि आपमें वाकई कोई दोष या कमी है. आलोचना का एक पक्ष यह भी हो सकता है कि आपके आलोचक आपसे कुछ भिन्न विचार रखते हों. यदि ऐसा है तो यह भी संभव है कि उनके विचार वाकई बेहतर और शानदार हों.  यह तो आपको मानना ही पड़ेगा कि बिना किसी मत-वैभिन्य के यह दुनिया बड़ी अजीब जगह बन जायेगी.
2. मुझे अपनी ख़ुशी के लिए अपने शुभचिंतकों की सुझाई राह पर चलना चाहिए.
बहुत से लोगों को जीवन में कभी-न-कभी ऐसा विचार आता है हांलांकि यह विचार तब घातक बन जाता है जब यह मन के सुप्त कोनों में जाकर अटक जाता है और विचलित करता रहता है. यह तय है कि आप हर किसी को हर समय खुश नहीं कर सकते इसलिए ऐसा करने का प्रयास करने में कोई सार नहीं है. यदि आप खुश रहते हों या खुश रहना चाहते हों तो अपने ही दिल की सुनें. दूसरों के हिसाब से ज़िंदगी जीने में कोई तुक नहीं है पर आपको यह भी ध्यान रखना चाहिए कि आपके क्रियाकलापों से किसी को कष्ट न हो. दूसरों की बातों पर ध्यान देना अच्छी बात है पर उन्हें खुश और संतुष्ट करने के लिए यदि आप हद से ज्यादा प्रयास करेंगे तो आपको ही तकलीफ होगी.
3. यदि मुझे किसी काम को कर लेने में यकीन नहीं होगा तो मैं उसे शुरू ही नहीं करूंगा.
इस विचार से भी बहुत से लोग ग्रस्त दिखते हैं. जीवन में नई चीज़ें करते रहना बढ़ने और विकसित होने का सबसे आजमाया हुआ तरीका है. इससे व्यक्ति को न केवल दूसरों के बारे में बल्कि स्वयं को भी जानने का अवसर मिलता है. हर आदमी हर काम में माहिर नहीं हो सकता पर इसका मतलब यह नहीं है कि आपको केवल वही काम हाथ में लेने चाहिए जो आप पहले कभी कर चुके हैं. वैसे भी, आपने हर काम कभी-न-कभी तो पहली बार किया ही था.
4. यदि मेरी जिंदगी मेरे मुताबिक नहीं चली तो इसमें मेरी कोई गलती नहीं है.
मैं कुछ कहूं? सारी गलती आपकी है. इससे आप बुरे शख्स नहीं बन जाते और इससे यह भी साबित नहीं होता कि आप असफल व्यक्ति हैं. आपका अपने विचारों पर नियंत्रण है इसलिए अपने कर्मों के लिए भी आप ही जवाबदेह हैं. आपके विचार और कर्म ही आपके जीवन की दिशा निर्धारित करते हैं. यदि आप अपने जीवन में चल रही गड़बड़ियों के लिए दूसरों को उत्तरदायी ठहराएंगे तो मैं यह समझूंगा कि आपका जीवन वाकई दूसरों के हाथों में ही था. उनके हाथों से अपना जीवन वापस ले लें और अपने विचारों एवं कर्मों के प्रति जवाबदेह बनें.
5. मैं सभी लोगों से कमतर हूँ.
ऐसा आपको लगता है पर यह सच नहीं है. आपमें वे काबिलियत हैं जिन्हें कोई छू भी नहीं सकता और दूसरों में वे योग्यताएं हैं जिन्हें आप नहीं पा सकते. ये दोनों ही बातें सच हैं. अपनी शक्तियों और योग्यताओं को पहचानने से आपमें आत्मविश्वास आएगा और दूसरों की सामर्थ्य और कुशलताओं को पहचानने से उनके भीतर आत्मविश्वास जगेगा. आप किसी से भी कमतर नहीं हैं पर ऐसे बहुत से काम हो सकते हैं जिन्हें दूसरे लोग वाकई कई कारणों से आपसे बेहतर कर सकते हों इसलिए अपने दिल को छोटा न करें और स्वयं को विकसित करने के लिए सदैव प्रयासरत रहें.
6. मुझमें ज़रूर कोई कमी होगी तभी मुझे ठुकरा दिया गया.
यह किसी बात का हद से ज्यादा सामान्यीकरण कर देने जैसा है और ऐसा उन लोगों के साथ अक्सर होता है जो किसी के साथ प्रेम-संबंध बनाना चाहते हैं. एक या दो बार ऐसा हो जाता है तो उन्हें लगने लगता है कि ऐसा हमेशा होता रहेगा और उन्हें कभी सच्चा प्यार नहीं मिल पायेगा. प्यार के मसले में लोग सामनेवाले को कई कारणों से ठुकरा देते हैं और ऐसा हर कोई करता है. इससे यह साबित नहीं होता कि आप प्यार के लायक नहीं हैं बल्कि यह कि आपका उस व्यक्ति के विचारों या उम्मीदों से मेल नहीं बैठता, बस इतना ही.
7. यदि मैं खुश रहूँगा तो मेरी खुशियों को नज़र लग जायेगी.
यह बहुत ही बेवकूफी भरी बात है. आपकी ज़िंदगी को भी खुशियों की दरकार है. आपका अतीत बीत चुका है. यदि आपके अतीत के काले साए अभी भी आपकी खुशियों के आड़े आ रहे हों तो आपको इस बारे में किसी अनुभवी और ज्ञानी व्यक्ति से खुलकर बात करनी चाहिए. अपने वर्तमान और भविष्य को अतीत की कालिख से दूर रखें अन्यथा आपका भावी जीवन उनसे दूषित हो जाएगा और आप कभी भी खुश नहीं रह पायेंगे. कोई भी व्यक्ति किसी की खुशियों को नज़र नहीं लगा सकता.
इन अचेतन विचारों से कैसे उबरें?
यह बहुत आसान है. जब भी आपके मन में कोई अचेतन या अतार्किक विचार आये तो आप उसे लपक लें और अपनी विचार प्रक्रिया का अन्वेषण करते हुए उसमें कुछ मामूली फेरबदल कर दें… कुछ इस तरह:
सोचिये कि आप किसी शानदार दिन अपनी प्रिय शर्ट पहनकर जा रहे हैं और एक चिड़िया ने उसपर बीट कर दी. ऐसे में आप सोचेंगे:

“ये @#$% हमेशा मेरे साथ ही क्यों होता है!?”
इसकी जगह आप यह कहें…
“अरे यार… अब तो इस शर्ट को धोना पड़ेगा.”
अपनी बातों में “हमेशा” को खोजें, जो कि अमूमन सही जगह प्रयुक्त नहीं होता. यदि वाकई आपके ऊपर चिड़ियाँ “हमेशा” बीट करतीं रहतीं तो कल्पना कीजिये आप कैसे दिखते. अबसे आप इस तरह की बातें करने से परहेज़ करें. एक और उदाहरण:
“मैं हमेशा ही बारिश में फंस जाता हूँ”… (यदि यह सच होता तो आप इंसान नहीं बल्कि मछली होते).
“मैं/मुझे… कभी नहीं…”{ उदाहरण: “मुझे पार्किंग की जगह कभी नहीं मिलती”… (यदि यह सच होता तो आप अपनी गाड़ी के भीतर ही कैद सुबह से शाम तक घूमते रहते).
“मैं… नहीं कर सकता” {उदाहरण: “मैं दो मील भी पैदल नहीं चल सकता”… (कभी कोशिश की?).
“मुझसे… करते नहीं बनता” {उदाहरण: “मुझसे कई लोगों के सामने बोलते नहीं बनता”… (ऐसा आप अपने परिजनों/दोस्तों याने कई लोगों के सामने ही बोलते हैं).
“कितनी बुरी बात है कि… {उदाहरण: “कितनी बुरी बात है कि सुबह से बारिश हो रही है”… (छोड़िये भी, इतनी भी बुरी बात नहीं है).
इसी तरह के और भी अचेतन व अतार्किक विचार हो सकते हैं जिनकी हमें पहचान करनी है और समय रहते ही उन्हें सकारात्मक विचार से बदल देना है. मुझे आशा है कि इस पोस्ट से आपको अपने जीवन में बदलाव/रूपांतरण लाने के कुछ सूत्र अवश्य मिले होगे. कोई भी बदलाव सहज नहीं होता बल्कि उसके लिए सतत प्रयासरत रहना पड़ता है. यदि पोस्ट में लिखी बातों पर गंभीरतापूर्वक विचार करने के बाद आप उन्हें अपने जीवन में उतरने का प्रयास करेंगे तो आपको कुछ सफलता ज़रूर मिलगी....