Saturday 27 August 2011

भारतीय दर्शन


वे
 वेद – वेद शब्द की निष्पत्ति संस्कृत की “विद्” धातु से हुई है जिससे तात्पर्य है – ‘जानना’। वेद मंत्रों की संहिता के रूप में है। वेद मंत्र किसी की वैयक्तिक रचना नहीं हैं। ऋषियों ने तपस्या या अनुभूति के गहन स्तर पर जिस तत्त्व का साक्षात्कार किया, वही वेदमंत्र हैं। इसलिये इन्हे अपौरुषेय भी कहा जाता है। संहितायें चार हैं –
ऋग्वेद -  सर्वाधिक प्राचीन ऋग्वेद माना जाता है। इसमें 1028 सूक्त हैं। इसे संसार के पुरातन साहित्य होने का गौरव भी प्राप्त है।
यजुर्वेद – यज्ञ के विधानों के मंत्र,
सामवेद – मंत्रों का गायन-पद्धति के साथ संकलन,
अथर्ववेद – उपर्युक्त तीनों वेदों के मंत्रों के साथ विशिष्ट तान्त्रिक आदि गूढ़ विषयों पर मंत्र।
वैदिक मंत्र प्रायः किसी न किसी देवताओं (देव - ज्ञान या प्रकाश को देने वाला) को सम्बोधित किये गये हैं। वेदों में प्रमुख देव इन्द्र, अग्नि, वायु आदि देवता हैं, जिन्हें प्रायः प्राकृतिक शक्तियों के व्यक्तित्व करण के रूप में देख गया है।
वेदों में मोक्ष का स्वरूप – मोक्ष शब्द वेदों में प्रयुक्त नहीं हुआ है। आर्यों ने वैदिक प्रार्थनाओं में इसी जीवन की समस्त सुख-सुविधाओं की कामना करते हुए शतायु होने की प्रार्थना की है -
    शरदः शतम् जीवेम्।
वैदिक मंत्र प्रार्थनाएँ भी हैं साथ में सबल, सरस एवं प्रफुल्लित जीवन के आदर्श तथा प्रेरणाएँ भी हैं। मंत्र में देवताओं से अनेक पशु संपदा, धन-धान्य से परिपूर्णता, सौभाग्यवृद्धि, उत्तमस्वास्थ्य, आरोग्य, शत्रुओं का नाश, अनेकों पुत्र एवं समस्त जागतिक सुखों से परिपूर्ण सौ वर्षों तक निरोगी जीवन की कामना की गयी है। इन कामनाओं की पूर्ति के लिये विभिन्न यज्ञों का विधान किया गया है। त्रुटि रहित रूप में यज्ञों का सम्पादन अकाट्य फल को उत्पन्न करने वाला कहा गया है। यहाँ तक कि स्वर्ग की प्राप्ति भी यज्ञ से संभव बतलाई गयी है –
“स्वर्ग कामो यजेत्”
अर्थात्, स्वर्ग को चाहने वाला यज्ञ करे।इस प्रकार यज्ञ-याग् आदिक कर्म उत्तम पुण्यों के प्रदाता बतलाए गये हैं जिससे जीवन समृद्ध तथा सुखमय तथा पावन-पुण्य मय होता बतलाया गया है। जीवन में उत्तम पुण्यों को करने पर इन्हीं सुखों के भोग के रूप में स्वर्ग के जीवन की कामना की गयी है। परन्तु स्वर्ग का जीवन केवल तभी तक संभव माना गया जब तक उत्तम पुण्यों का भोग पूरा नहीं हो जाता है, इसके पश्चात पुनः जगत में आगमन की बात की गयी है। तथा इसके विपरीत दुष्कर्मों या पाप के फल के रूप में नर्क की अवधारणा है।
दो महत्वपूर्ण अवधारणाएँ –
ऋत – ऋत से तात्पर्य है, प्राकृतिक नियम, वैश्विक नियम, नैतिक नियम या सत्य का नियम। जो सत्य या सही है वह जगत की नैतिक व्यवस्था के रूप में है। इस मूलभूत प्रत्यय से ही आगे विश्व के एकत्व की व्याख्या आपादित हुई।
अनृत – असत्य या असम्यक् व्यवहार, असत्य वाक् इत्यादि वस्तुतः वैश्विक-नैतिक व्यवस्था के विपरीत या विरूद्ध कोई भी कृत्य अनृत कहा गया है।
महत्वपूर्ण नोट -  वैदिक धर्म की व्याखा जटिलता को समाहित करती है। यद्यपि यहाँ पर स्वर्ग एवं नर्क की अवधारणा है, तथापि स्वर्ग पद अत्यन्त कम बार ही वेदों में प्रयुक्त दिखाई देता है। ऋग्वेद के अन्तिम भाग में ही यह प्रयुक्त दिखायी देता है। साथ ही नर्क पद ऋग्वेद में प्रयुक्त नहीं है। अथर्ववेद में इसका प्रयोग दिखायी देता है।
साथ ही ऋग्वेद के दसवें मण्डल में “नासदीय सूक्त” में सृष्टि के उद्भव का वर्णन आता है। यहाँ कहा गया है कि प्रारम्भ में सृष्टि में कुछ भी नहीं था सत् एवं असत्, अमरत्व एवं, मृत्यु भी नहीं थी। जगत् शून्य के समान था, तब उस समय केवल एक अस्तित्व था जो कि श्वास रहित परन्तु अपने से श्वासित था । यहीं पर उपनिषदिक एक तत्त्व तथा आत्मा की अवधारणा का प्रारम्भिक स्वरूप एवं वर्णन प्राप्त होता है। नासदीय सूक्त को इस वर्णन के परिप्रेक्ष्य से जीवन के प्रथम प्रश्वास का प्रथम लिखित वर्णन भी कहा जा सकता है।

उपनिषत्
 उपनिषत् शाब्दिक अर्थ “गुरू के समीप बैठना”  अर्थात् किसी(आत्मा, ब्रह्म, संसार आदि) गूढ़ विषय पर चर्चा हेतु गुरू के समीप जाना।
प्रमुख उपनिषत् ग्यारह माने गये हैं – ईश, केन, कठ, मुण्डक, माण्डूक्य, प्रश्न, तैत्तरीय, ऐतरेय, वृहदारण्यक, छान्दोग्य  तथा श्वेताश्वतर।
‘आत्मन्’ या आत्मा पद भारतीय दर्शन के महत्त्वपूर्ण प्रत्ययों(concepts) में से एक है। उपनिषदों के मूलभूत विषय-वस्तु के रूप में यह आता है। जहाँ इससे अभिप्राय व्यक्ति में अन्तर्निहित उस मूलभूत सत् से किया गया है जो कि शाश्वत तत्त्व है तथा मृत्यु के पश्चात् भी जिसका विनाश नहीं होता।
आत्मा या ब्रह्म के प्रत्यय का उद्भव – उपनिषदों में इस प्रश्न पर विचार किया गया है कि – जगत का मूल तत्त्व क्या है/कौन है ? इस प्रश्न का  उत्तर में उपनिषदों में ब्रह्म’ से दिया गया है। अर्थात् ब्रह्म ही वह मूलभूत तत्त्व है जिससे यह समस्त जगत का उद्भव हुआ है – “बृहति बृहंति बृह्म” अर्थात् बढ़ा हुआ है, बढ़ता है इसलिये ब्रह्म कहलाता है। यदि समस्त भूत जगत् ब्रह्म की ही सृष्टि है तब तार्किक रूप से हममें भी जो मूल तत्त्व है वह भी ब्रह्म ही होगा। इसीलिये उपनिषदों में ब्रह्म एवं आत्मा को एक बतलाया गया है। इसी की अनुभूति को आत्मानुभूति या ब्रह्मानुभूति भी कहा गया है।

‘आत्मा’ शब्द के अभिप्राय – आत्मा शब्द से सर्वप्रथम अभिप्राय ‘श्वास-प्रश्वास’(breathing) तथा ‘मूलभूत-जीवन-तत्त्व’ किया गया प्रतीत होता है। इसका ही आगे बहुआयामी विस्तार हुआ जैसे -
                   यदाप्नोति यदादत्ति यदत्ति यच्चास्य सन्ततो भवम् ....
तस्माद् इति आत्मा कीर्त्यते।।(सन्धि विच्छेद कृत)
                                                            - शांकरभाष्य
अर्थात्, जो प्राप्त करता है(देह), जो भोजन करता है, जो कि सतत् (शाश्वत तत्त्व के रूप में) रहता है, इससे वह आत्मा कहलाता है।

उपनिषदों में आत्मा विषयक चर्चा तैत्तरीय उपनिषत् में आत्मा या चैतन्य के पाँच कोशों की चर्चा की गयी प्रथम अन्नमय कोश, मनोमय कोश, प्राणमय कोश, विज्ञानमय कोश तथा आनन्दमय कोश। आनन्दमय कोश से ही आत्मा के स्वरूप की अभिव्यक्ति की गयी है। माण्डूक्य उपनिषत् में चेतना के चार स्तरों का वर्णन प्राप्त होता है –
1.          जाग्रत
2.          स्वप्न
3.          सुषुप्ति
4.          तुरीय
यह तुरीय अवस्था को ही आत्मा के स्वरूप की अवस्था कहा गया है -
“शान्तं शिवमद्वैतं चतुर्थ स आत्मा स विज्ञेयः”।।
                             माण्डूक्योपनिषत्, 7
छान्दोग्य उपनिषत् इसी सन्दर्भ में इन्द्र एवं विरोचन दोनों प्रजापति के पास जाकर आत्मा(ब्रह्म) के स्वरूप के विषय में प्रश्न करते हैं। यहाँ पर प्रणव या ॐ को इसका प्रतीक या वाचक कहा गया है। बृहदारण्यक उपनिषत् में याज्ञवल्क्य एवं मैत्रेयी के संवाद में भी आत्मा के सम्यक् ज्ञान मनन-चिन्तन एवं निधिध्यासन की बात की गयी है तथा इससे ही परमतत्त्व के ज्ञान को भी संभव बतलाया गया है -
“आत्मा वा अरे श्रोतव्या मन्तव्या निदिध्यासतव्या.......................”

Reference & Basic Quotations
 कठोपनिषत् –
          येयं प्रेते विचिकित्सा मनुष्येऽस्तीत्येके नायमस्तीति चैके।
     एतद्विद्यामनुशिष्टस्त्वयाहं वराणामेष  वरस्तृतीय: ॥२०॥
          देवैरत्रापि विचिकित्सितं पुरा न हि सुवेज्ञेयमणुरेष धर्म :।
                      अन्यं वरं नचिकेतो वृणीष्व मा मोपरोत्सीरति मा सृजैनम् ॥२१॥
केनोपनिषत् –

ॐ केनेषितं पतति प्रेषितं मनः केन प्राणः प्रथमः प्रैति युक्तः।
केनेषितां वाचमिमां वदन्ति चक्षुः श्रोत्रं कउ देवो युनक्ति।।1।।
श्रोत्रस्य श्रोत्रं मनसो मनो यद्वाचो ह वाचं सउ प्राणस्य प्राणश्चचक्षुश्चक्षुरितिमुच्य धीराः प्रेत्यास्माल्लोकादमृता भवन्ति।।2।।
न तत्र चक्षुर्गच्छति न वाग्गच्छति नो मनो न विद्मो न विजानीमो यथैतदनुशिष्यादन्यदेव तद्विदितादथो अविदितादधि।
इति शुश्रुम पूर्वेषां ये नस्तद्व्याचचक्षिरे।।3।।
यद्वाचानभ्युदितं येन वागभ्युद्यते।
तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते।।4।।
प्रश्नोपनिषत् –

तृतीयः प्रश्नः
अथ हैनं कौसल्यश्चाश्वलायनः पप्रच्छ।। भगवन्कुत एष प्राणो जायते कथमायात्यस्मिञ्छरीर आत्मानं वा प्रविभज्य कथं प्रतिष्ठते केनोत्क्रमते कथं बाह्यमभधत्ते कथमध्यात्ममिति।।1।।
माण्डूक्योपनिषत् –

अदृष्टमव्यवहार्यमग्राह्यमलक्षणमचिन्त्यमव्यपदेश्यमेकात्मप्रत्ययसारं प्रपञ्चोपशमं शान्तं शिवमद्वैतं चतुर्थ स आत्मा स विज्ञेयः।।7।।
सोऽयमात्माऽध्यक्षरमोङ्कारोऽधिमात्रं पादा मात्रा मात्राश्च पाद अकार उकारो मकार इति ।।8।।
अमात्रश्चतुर्थोऽव्यवहार्यः प्रपञ्चोपशमः शिवोऽद्वैत एवमोङ्कार आत्मैव संविशत्यात्मनात्मानं य एवं वेद य एवं वेद।।12।।
तैत्तरीयोपनिषत्
यतो वाचो निवर्तन्ते।। अप्राप्य मनसा सह।। आनन्दं ब्रह्मणो विद्वान्।। न बिभेति कदाचनेति।। तस्यैष एव शारीर आत्मा।। यः पूर्वस्य।। तस्माद्वा एतस्मान्मनोमयात्।। अनयोऽन्तर आत्मा विज्ञानमयः।। तेनैष पूर्णः।। स वा एष पुरुषविध एव।। तस्य पुरुषविधताम्।। अन्वयं पुरुषविधः।। तस्य श्रद्धैव शिरः ।। ऋतं दक्षिणः पक्षः।। सत्यमुत्तरः पक्षः ।। योग आत्मा।। महः पुच्छं प्रतिष्टा।। तदप्येष श्लोको भवति।। इति चतुर्थोऽनुवाकः।।4।।
उपनिषदों में मोक्ष का स्वरूप
उपनिषदों में जिज्ञासा का मुख्य विषय रहस्यमय एवं गुह्य एक तत्त्व का ज्ञान है। इसके ज्ञान या अनुभूति की अभिलाषा ही उपनिषदों में मूल विषय है। इसे सृष्टि का मूल तत्त्व भी बतलाया गया है। इसे ही आत्मा या ब्रह्म, अद्वैत, शिव पुरुष, आदि विविध नामों से कहा गया है। इस मूल भूत तत्त्व के ज्ञान के साथ समस्त कर्मों एवं कर्म फलों की समाप्ति (क्षय) कही गयी है। यही पर वैदिक कर्मकाण्डों एवं यज्ञों को अयथेष्ठ(या अपर्याप्त) भी माना गया है। क्योंकि वेदिक कर्मकाण्डों से अधिकतम प्राप्तव्य के रूप में स्वर्ग कहा गया। यह वस्तुतः उत्तम कर्म फलों के रूप में प्राप्त होने वाली स्थिति ही है। क्योंकि स्वर्ग में भी सभी उत्तम फलों का भोग पूरा होने पर पुनः पृथ्वी पर जन्म एवं मृत्यु की स्थिति होने वाली है। परन्तु ब्रह्म ज्ञान को इस पुनरागमन के परे तथा श्रेष्ठ माना गया जो कि समस्त कर्मफलों का शामक तथा अक्षय कहा गया है। ब्रह्म को सत्, चित् एवं आनन्द बतलाया गया है। तथा ब्रह्मनुभूति के लिये सत्य, तपस् एवं साधना का मार्ग प्रस्तावित किया गया। उपनिषदों में इसके लिये महावाक्यों -
“अहं ब्रह्मास्मि”,
 “सर्वं खल्विदं ब्रह्म”,
 “तत्त्वमसि”
के श्रवण, मनन एवं निदिध्यासन को प्रस्तावित किया गया है। इसी से ब्रह्मानुभूति, मुक्ति, अमृतत्त्व या मोक्ष प्राप्ति संभव बतलायी गयी है।
महत्वपूर्ण नोट – मोक्ष शब्द प्रमुख उपनिषदों में प्रयुक्त नहीं हुआ है। यह शब्द श्वेताश्वतर उपनिषत् में केवल एक बार आया है। हॉलाकि मोक्ष के इतर अन्य शब्द – विमुच्य, मुच्यते, मुक्ति, अमृतत्व, अमृत पद आदि उपनिषदों में प्रयुक्त हुये हैं तथा इनसे अभिप्राय भी कहीं-कहीं पर मोक्ष के समानान्तर नहीं है। परिवर्ती साहित्य में मोक्ष शब्द का प्रयोग स्पष्ट मिलता है विशेष रूप से दर्शन सूत्रों में तथा उनके भाष्यों में । जहाँ पर इसका स्पष्ट अभिप्राय – “बंधन से छूटना” है।
Basic Quotations :

वेदान्तविज्ञानसुनिश्चितार्थाः संन्यासयोगाद् यतयः शुद्धसत्त्वाः।
ते ब्रह्मलोकेषु परान्तकाले परामृताः परिमुच्यन्ति सर्वे ॥६॥
मुण्डकोपनिषत्
श्रोत्रस्य श्रोत्रं मनसो मनो यद्वाचो ह वाचं स उ प्राणस्य
प्राणश्चचक्षुश्चक्षुरितिमुच्य धीराः प्रेत्यास्माल्लोकादमृता भवन्ति।।2।।
- केनोपनिषत्
प्रधानक्षेत्रज्ञपतिर्गुणेशः संसारमोक्षस्थितिबन्धहेतुः।।16।।
-         श्वेताश्वतरोपनिषत्

अद्वैत  दर्शन
अद्वैत से तात्पर्य है – अ+द्वैत अर्थात् द्वैत का अभाव।
वेदान्त दर्शन के विभिन्न सिद्धान्तों में अद्वैत दर्शन महत्वपूर्ण स्थान रखता है। अद्वैत वेदान्त विचारधारा के विविरण पूर्व में भी मिलते हैं तथापि आचार्य शंकर(788-820 ई.) को इस विचारधारा का संस्थापक माना जाता है। उन्होंने उपनिषदों, ब्रह्मसूत्र तथा गीता की अपनी व्याख्याओं में परमत्त्व का स्वरूप में समस्त द्वैधता(एक से अधिक होना) को नकारते हुए अद्वैत(अर्थात् परम तत्त्व का एकत्व स्थापित किया। यही अद्वैत मत कहलाता है।
वेदान्त की इस विचारधारा के अनुसार अद्वैत ही परमसत(ultimate reality) है। यदि हम परमतत्त्व का विश्लेषण करें तो अन्तोगत्वा कोई भी वैयक्तिक तत्त्व नहीं है केवल काल क्रम से ही उनमें किसी स्थान एवं समय की अपेक्षा से वैयक्तिकता दिखायी देती है। जैसे घड़े के अन्दर का रिक्त स्थान एवं घड़े के बाहर कमरे का रिक्त स्थान एवं कमरे के बाहर का भी रिक्त स्थान – सभी रिक्त स्थान तात्त्विक दृष्टि से एक हैं, उसी प्रकार सभी तत्त्व अन्ततः परमतत्त्व(ब्रह्म) की प्रतीति हैं। यह परमसत् सभी कालों या समयों में एक समान रहता है, यही परमसत् की परिभाषा भी है –
“त्रिकालाबाधित्वं सत्”
                             - शांकरभाष्य
सत्ता की दृष्टि से इसे ही ब्रह्म कहा गया है – बृहति बृंहति ब्रह्म ” अर्थात्, बढ़ा हुआ है या बढ़ता है इसीलिये ब्रह्म कहलाता है। इसी की अभिव्यक्ति समस्त चराचर सृष्टि है। आत्मा भी वास्तव में परमसत् का ही (वैयक्तिक विवेचन की दृष्टि से) स्वरूप है, उससे भिन्न नहीं है। आत्म के इस परम स्वरूप की अनुभूति न होना आत्मा की जीव रूपी अवस्था है, इसे ही बन्धनावस्था कहा गया है। अतः अपने वास्तविक स्वरूप अर्थात् आत्म स्वरूप की अनुभूति ही मोक्ष कहा गया है।
अद्वैत सिद्धान्त की यही मन्तव्य अधोलिखित श्लोक से अभिव्यक्त होता है –
                             “ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापरः”
“ब्रह्म सत्य है एवं जगत् मिथ्या है, जीव ब्रह्म ही है ब्रह्म से इतर या भिन्न नहीं है”।
अद्वैत – मोक्ष का स्वरूप*
 बंधन तथा जीवात्मा का वास्तविक स्वरूप – आचार्य शंकर के अनुसार जीव अपने वास्तविक स्वरूप में ब्रह्म ही है। किन्तु माया या अविद्या के प्रभाव से वह अपने वास्तविक स्वरूप को नहीं अनुभूत करता । इस प्रकार जीव का अपने वास्तविक स्वरूप को नहीं अनुभूत करना ही उसका बन्धन है। इस बंधन की निवृत्ति के लिये जीव का अपने वास्तविक स्वरूप की अनूभूति ही करनी है। यह आत्म-स्वरूप की अनुभूति होगी। यही अविद्या निवृत्ति भी होगी। इसी लिये मोक्ष को अविद्या की निवृत्ति कहा गया है -   
“अविद्या निवृत्तिरेव मोक्षः”
इस प्रकार मोक्षानुभूति में कुछ भी नया नहीं प्राप्त करना है बल्कि मिथ्या ज्ञान कि वह सीमित जीव है को ही हटाना है तथा इसकी अपेक्षा वास्तव में वह आत्मा या ब्रह्म है- इसकी अनुभूति करनी है। यह अवस्था सत्, चित् एवं आनन्द की अवस्था कही गयी है।
मोक्ष प्राप्ति को समझने के लिये ऐसा उदाहरण दिया जाता है कि जैसे किसी के गले का हार खो जाये तथा वह समस्त जगहों पर खोजने पर भी प्राप्त न हो और अन्त में कोई कहे कि वह तो उसके गले ही में है। इसी लिये मोक्ष को “प्राप्तस्य प्राप्ति” भी कहा गया है क्योंकि मोक्षावस्था प्राप्त नहीं करना है वह तो पहले से ही जीव का वास्तविक स्वरूप है केवल उसकी अनुभूति ही करनी है।
साधन-चतुष्टय – मोक्षावस्था की अनुभूति के लिये चार साधनों के समूह के रूप मे साधन चतुष्टय बतलाए गये हैं-
  1. नित्यानित्य वस्तु विवेक : अर्थात् , नित्य एवं अनित्य तत्त्व का विवेक ज्ञान,
  2. इहमुत्रार्थ भोगविराग : जागतिक एवं स्वार्गिक दोनों प्रकार के भोग-ऐश्वर्यों से अनासक्ति,
  3. शमदमादि षट् साधन सम्पत् – शम, दम, श्रद्धा, समाधान, उपरति, तितिक्षा, आदि छः साधान सम्पत्तियों से युक्त होना,
  4. मुमुक्षत्व – मोक्षानुभूति की उत्कण्ठ अभिलाषा,
उपरोक्त साधन मोक्ष प्राप्ति में सहायक कहे गये है।
महावाक्य - चार महावाक्यों- ‘अहं ब्रह्मास्मि’, ‘अयमात्मा ब्रह्म’, ‘सर्वं खल्विदं ब्रह्म’, 'तत्त्वमसि' आदि का श्रवण, मनन एवं निदिध्यासन मोक्षानुभूति का कराने वाला कहा गया है।
मोक्षवस्था के दो प्रकार बतलाए गये हैं -  जीवन मुक्ति एवं विदेह मुक्ति। जब इस जीवन में ही शारीरिक अवस्था अर्थात् मृत्यु के पूर्व मोक्ष की अनूभूति होती है तब इसे जीवनमुक्ति कहा गया है। एवं जब शरीर के समाप्त के साथ मोक्ष की अनूभूति होती है तब इसे विदेह मुक्ति कहा गया है।
 (अद्वैत वेदान्त का सहित्य भारतीय दार्शनिक साहित्य परम्परा में अत्यन्त समृद्ध एवं विशाल है। इसके संस्थापक आचार्य शंकर ने ही हिन्दू धर्म की संरक्षणार्थ चार पीठों की स्थापना की जो भारतवर्ष के पूर्व, पश्चिम, उत्तर तथा दक्षिण में पुरी, द्वारका, बद्रीनाथ तथा श्रंगेरी के नाम से चारों धाम के रूप में जानी जाती हैं।)

  विशिष्टाद्वैत दर्शन
    परिचय - रामानुज (1017-1137 ई.) वेदान्त परम्परा के भक्तिमार्गी दर्शन परम्परा के प्रथम दार्शनिक कहे जा सकते हैं। रामानुजाचार्य ने सातवीं-दसवीं शताब्दी के रहस्यवादी एवं भक्ति मार्गी अलवार सन्तों से भक्ति के दर्शन को तथा दक्षिण के पंचरात्र परम्परा को अपने विचार की पृष्ठभूमि बनाया। रामानुज जगत एवं समस्त जागतिक ज्ञान को सत्य मानते हैं । तथा समान्य दैनिक जीवन की दिनचर्या को आध्यात्मिक जीवन से सर्वथा पृथक या भिन्न भी नहीं बतलाते हैं।
मूल ग्रन्थ – ब्रह्मसूत्र पर भाष्य – ‘श्रीभाष्य’ एवं वेदार्थ संग्रह
रामनुजाचार्य के दर्शन में सत्ता या परमसत् के सम्बन्ध में तीन स्तर विवेचित हैं –
ब्रह्म (ईश्वर), चित्(आत्म), तथा अचित्(प्रकृति)
विशिष्टाद्वैत-आत्म
वस्तुतः ये चित् अर्थात् आत्म तत्त्व तथा अचित् अर्थात् प्रकृति तत्त्व ब्रह्म या ईश्वर से पृथक नहीं है बल्कि ये विशिष्ट रूप से ब्रह्म का ही स्वरूप है एवं ब्रह्म या ईश्वर पर ही आधारित हैं यही रामनुजाचार्य का विशिष्टाद्वैत का सिद्धान्त है। इसे हम शरीर एवं आत्मा के उदाहरण से समझ सकते हैं, जैसे एक शरीर एवं आत्मा पृथक नहीं हैं तथा आत्म के उद्देश्य की पूर्ति के लिये शरीर कार्य करता है उसी प्रकार ब्रह्म या ईश्वर से पृथक चित् एवं अचित् तत्त्व का कोई अस्तित्व नहीं हैं वे ब्रह्म या ईश्वर का शरीर हैं तथा ब्रह्म या ईश्वर उनकी आत्मा सदृश्य हैं। रामानुज का यह सिद्धान्त ‘जैव-ऐक्य’ का सिद्धान्त प्रस्तुत करता है।
यदि आत्म तत्त्व ईश्वर पर ही आश्रित है तो आत्मा का उद्देश्य रामनुजाचार्य के अनुसार ईश्वर की सेवा या उनके लिये ही सब कुछ करना(serving to the God) हो जाता है। ईश्वर से आत्म में जो कुछ भी भिन्नता है वह ही शेष(ईश्वरत्व की प्राप्ति के लिये) है। समस्त दृश्य जगत ईश्वर की अभिव्यक्ति है। यह सत् है। असत् या माया नहीं है। इस आधार पर रामानुजाचार्य, अपने पूर्ववर्ती आचार्य शंकर के विचारों का खण्डन करते हैं। तथा ब्रह्म या परमसत् या ईश्वर के चित्(आत्म तत्त्व) तथा अचित् (अचेतन तत्त्व या प्रकृति) से विशिष्ट स्वरूप को निरूपित करते हैं, यही रामनुजाचार्य का विशिष्टाद्वैत वाद (अर्थात् चित् अचित् विशिष्ट ब्रह्म) है।
(Rāmānujacārya has systematically given the devotional interpretation of Brahamasutra and established the Puja practice of the the Lord Vishnu or rituals and starting of Vaishnav tradition. His started tradition is still being carried in two prominent place in South one in रंगनाथ मंदिरम् in Śrīraṅgam, Tamil Nadu, and the वेंकटेश मंदिरम्  temple in Tirupati, Andhra Pradesh.)
विशिष्टाद्वैत – मुक्ति का स्वरूप*
रामानुजाचार्य के मुक्ति के सिद्धान्त में जीव की यद्यपि ब्रह्म या ईश्वर की अनुभूति मोक्ष कही गयी है। अद्वैत वेदान्त के शंकराचार्य के मोक्ष के सिद्धान्त की अपेक्षा रामानुजाचार्य ने जीव को मोक्षावस्था में भी वैयक्तिकता से युक्त माना है। केवल जीव का अहंकार अर्थात् “मैं” या कर्ता का भाव समाप्त हो जाता है। वह स्वतन्त्र है – यह भाव समाप्त हो जाता है।
मुक्ति के साधन – भक्ति एवं प्रपत्ति । रामानुजाचार्य के अनुसार मोक्षावस्था की प्राप्ति ईश्वर की परम भक्ति से तथा ईश्वर की कृपा से ही संभव हो सकती है। इसके साथ ही रामानुजाचार्य भक्ति के साथ द्वितीय रूप प्रपत्ति का मानते हैं, प्रपत्ति से आशय है ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण का भाव। जिस प्रकार तेल की धारा सतत होती है उसी प्रकार ईश्वर का सतत ध्यान एवं समर्पण मुक्तावस्था का स्वरूप बतलाया गया है।
भक्ति से आशय – रामानुजाचार्य के अनुसार भक्ति से तात्पर्य है ध्यान ईश्वर आराधना। इसके साथ अपने कर्तव्य-कर्मो को करना भी रामानुजाचार्य सहायक मानते हैं। सामाजिक परिप्रेक्ष्य से रामानुजाचार्य ने भक्ति को जाति एवं वर्ग से पृथक तथा सभी के लिये संभव माना है। इस दृष्टि से मुक्तावस्था सभी के लिये साध्य कही जा सकती है।
*नोट -  सन्दर्भित दर्शनों का प्रारम्भिक परिचय आत्मा के स्वरूप खण्ड से देखें तथा मोक्ष के वर्णन से पहले उसे लिखें।

  शैव दर्शन
शैव दर्शन हिन्दू मान्यता के तीन प्रमुख प्रचलित वर्तमान आधारों शैव, वैष्णव तथा शाक्त में से एक है। शैव दर्शन में शिव से आशय है कि ‘परम पवित्र एक (अद्वैत)’। शैव दर्शन के अन्तर्गत भी क्रिया-विधि, मान्यता-सिद्धान्त आदि के आधार पर विभिन्न प्रचलित स्वरूप मिलते हैं ।
प्रमुख सम्प्रदाय - तीन प्रमुख हैं –
                    शैव-सिद्धान्त ( दार्शिनक एवं सैद्धान्तिक दृष्ट से महत्वपूर्ण)
                    लिंगायत ( समाजिक रूप से भिन्नता के आधार पर- भिन्न समाज ही होता है)
                    दशनामी सन्यांसी ( सन्यास धारण किये हुये)
ऐतिहासिक रूप से शैव दर्शन का उद्भव विद्वानों द्वारा आर्यों के पूर्व भी बतलाया जाता है जिसका कि समन्वय कालक्रम से वैदिक देवता रूद्र( प्रलयंकारी) के गुणों के साथ समन्वित किया गया है। श्वेताश्वतर उपनिषत् में शिव को सर्वकालिक शाश्वत कहा गया है।
तीन मुख्य तत्त्व - शैव दर्शन के अन्तर्गत तीन मुख्य तत्त्व माने गये हैं - 
पति – शिव (परम ईश्वर)
                    पशु – जीव ( बंधनावस्था में जीव)
                   पाश – बंधन ( जो कि जीव को जगत की सीमित अवस्था में बाँध कर रखता है।)       जीव को यहाँ पर बंधनावस्था में सीमित स्वभाव का बतलाया गया है जहाँ पर उसके ज्ञान एवं शक्ति अल्प होते है तथा अनादि अविद्या से वह बंधनावस्था में रहता है। अविद्या या अज्ञान ही उसका पाश है। शिव कि परम कृपा से इस बंधन का समाप्त करना ही ‘शिवत्व’ को प्राप्त करना है। इसे ही मोक्ष या मुक्ति कहा गया है। शैव दर्शन में मोक्षावस्था प्राप्ति के लिये चार प्रकार की साधनाओं अपरिहार्यतायें बतलायी गयीं हैं –
1.          चर्या -  पूजन आदि कर्म,
2.          क्रिया – आराधना करना तथा  आश्रित होना,
3.          योग – ध्यान, और
4.          ज्ञान – शिव के स्वरूप का वास्तविक ज्ञान।
इन्हीं से क्रमागत रूप से शिव के स्वरूप की अनूभूति तथा शिवत्व की प्राप्ति संभव बतलायी गयी है।

  चार्वाक दर्शन
   चार्वाक भारतीय दर्शनों में भौतिकवादी विचारधारा का प्रतिनिधित्व करता है।
चार्वाक का अर्थ - चार्वाक (चारु + वाक् = सुन्दर वचन) इसे लोकायत दर्शन भी कहते हैं। चार्वाक दर्शन अति प्राचीन है वेदों में भी इसकी मान्यताओं के सन्दर्भ मिलते हैं। चार्वाक विचारधारा इस जगत एवं इस जीवन पर केन्द्रित है यह इस जगत् के परे तथा इस जीवन के पश्चात् किसी भी अन्य जगत् या जीवन के अस्तित्व को अस्वीकार करता है। चार्वाक दर्शन मुख्य रूप से चली आ रहीं तीन वैदिक मान्यताओं को अस्वीकार कर देता है -
1.         इस जगत् के परे किसी अन्य जगत् (स्वर्ग एवं नर्क) का कोई अस्तित्व नहीं है
2.         वेदों की प्रमाणिकता नहीं है,
3.         किसी भी अमर आत्मा का अस्तित्व नहीं है।
इस प्रकार समस्त जगत का उद्भभव या सृष्टि पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि इन चार महाभूतों से हुई है। आकाश को भी ये नहीं मानते क्योंकि इसका प्रत्यक्ष नहीं होता है। इस प्रकार समस्त देह(body) चार भूतों से बनी हुई है तथा जब चार भूतों का संयोग होता है तो स्वंयमेव चेतना का संचार हो जाता है जैसे पान, सुपारी, कत्थे आदि के संयोग से लाल रंग अपने आप उत्पन्न हो जाता है। इसी प्रकार भौतिक वस्तुओं में चेतना का संचार अपने आप हो जाता है। और मृत्यु के साथ यह चेतना भी समाप्त हो जाती है। इसप्रकार मृत्यु के पश्चात कोई भी तत्त्व शेष नहीं रहता है। इसीलिये चार्वाक यह कहता है कि जब तक जियो सुखपूर्वक जियो क्योंकि एक बार देह के समाप्त हो जाने के पश्चात पुनः देह का आगमन संभव नहीं है –
“यावज्जीवेत् सुखं जीवेत् ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत्
भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः।।”
                                      - सर्वदर्शनसंग्रह
इस प्रकार कहा जा सकता है कि चार्वाक दर्शन में देहात्मवाद(देह ही आत्मा है) का सिद्धान्त समर्थित किया गया है। एवं मृत्यु को ही मोक्ष माना है -
“मृत्यु एव अपवर्गः”
(चार्वाक मान्यताओं की स्थूलता तथा केवल भौतिकवादी विचारों पर आश्रित रहने के कारण तथा वेदों की आलोचना के कारण अन्य भारतीय दर्शनों के द्वारा प्रबल आलोचना हुई है। ऐतिहासिक रूप से चार्वाक मान्यताऐं छठवीं शताब्दी के आसपास लगभग समाप्त होती दिखायी देती हैं। चार्वाक दर्शन का कोई भी मूलग्रन्थ अप्राप्त है अन्य ग्रन्थों में इसका वर्णन आलोचना के रूप में आया है वहीं पर हमें इस दर्शन के सिद्धान्तों के बारे में जानकारी मिलती है )

    बौद्ध दर्शन  
 
बुद्ध का अर्थ - Buddha = “awakened one”, one who have Realization, बुद्ध – ‘बोधि’ संप्राप्त
मूल-साहित्य-  त्रिपिटक ( विनयपिटक, सुत्तपिटक, अभिधम्मपिटक) जो कि पालि भाषा में रचित है।
बौद्ध मान्यता के अनुसार व्यक्ति या समष्टि दोनों का ही अस्तित्व एक निरन्तर एवं क्षणिक रूप में है। और यह अपने अग्रिम क्षण में परिवर्तित या विलीन हो जाता है। बौद्धों  का यह सिद्धान्त क्षणिकवाद कहलाता है।
बौद्ध दर्शन में सभी प्रकार के अस्तित्व के तीन मूलभूत लक्षण बतलाये गये हैं –
      ‘त्रिविधलक्षणात्मकं सत्ता’

समस्त अस्तित्व ‘त्रिलक्षण’ है
अनात्म अर्थात् आत्मा का अस्तित्व नहीं है
अनित्य अर्थात् सभी पदार्थ परिणामी एवं विनाशशील हैं
दुःख अर्थात् सभी पदार्थ अन्ततोगत्वा दुःखस्वरूप है
महात्मा बुद्ध की उक्ति है –
“सब्बे भव्वा दुख्खा अनिच्चा विपरिणामधम्मा”
                                                - अंगुत्तर निकाय, पालि साहित्य
          अर्थात् सम्पूर्ण संसार अनित्य दुःखस्वरूप एवं विपरीत परिणामों से युक्त है।
इस प्रकार बौद्ध दर्शन अजर-अमर-शाश्वत आत्मा के अस्तित्व को अस्वीकार कर देता है। और आत्मा को पांच स्कन्धों(अवयवों) के संघात(समूह) के रूप में मानता है। यह सिद्धान्त अनात्मवाद के नाम से जाना जाता है।
बौद्धों का अनात्मवाद पाँच स्कन्धों के समवाय को बताता है। जिससे तात्पर्य है कि
पंच स्कन्ध - मानव अस्तित्व पाँच घटकों से बना हैं-
(1) रूप corporeality or physical forms
(2) वेदना feelings or sensations
(3) संज्ञा ideations
(4) संस्कार mental formations or dispositions , and
(5) विज्ञान consciousness
 इसप्रकार समस्त मानव अस्तित्व इन उपरोक्त पांच घटकों का संघात या समूहात्मक स्वरूप है, इसका कोई एक अवयव केवल आत्मा नहीं है। अस्तित्व का किसी समय कोई न कोई एक रूप, कोई न कोई एक संज्ञा(नाम), कोई न कोई संस्कार, चेतना आदि होती है। इस प्रकार अस्तित्व में संस्कारों, रूप, वेदना, संज्ञा, विज्ञान(चेतना) का प्रवाहमात्र है। यही बौद्ध का अनात्मवाद है। 
मोक्ष का स्वरूप – बौद्ध दर्शन - निर्वाण*
निर्वाण – निर्वाण से आशय है – बुझना शान्त हो जाना। बुद्ध स्वयं भिक्षुओं को निर्वाण के विषय में इस प्रकार कहते थे। हे भिक्खुओं ! जिस प्रकार दीपक तेल एवं बत्ती के क्षय से बुझ जाता है, उसकी ज्वलनशीलता समाप्त हो जाती है। उसी प्रकार तृष्णाओं एवं अविद्या के क्षय से निर्वाण होता है।
बोधि प्राप्त करने के पश्चात् बुद्ध ने सारनाथ (वारणसी के समीप) जब अपना प्रथम उद्बोधन दिया तो अपनी शिक्षाओं का सार चार आर्य सत्यों से बतलाया । उनके अनुसार ये चार आर्य सत्य हैं –
दुःख, अर्थात् संसार का वास्तविक स्वरूप दुःख ही है, अनात्म है एवं अनत्य है,
दुःख-समुदय, अर्थात् दुखों का कारण है। इसका विवेचन बारह कड़ियों के द्वादश निदानों के रूप में अविद्या से जरा-मरण पर्यन्त किया है। इन्हें प्रतीत्य समुत्पाद भी कहते हैं। इसके द्वारा ही कर्म एवं पुनर्जन्म का होना बौद्ध दर्शन में बतलाया गया है।
दुःख निरोधः, अर्थात्, समस्त संसारिक दुःखों का निरोध संभव है
दुःख-निरोध गामिनी प्रतिपदा इन दुःखो के निरोध का मार्ग है। इस मार्ग को बुद्ध ने अष्टांग मार्ग के रूप में बतलाया है। अर्थात् इस मार्ग के आठ अंग है। ये हैं -
अष्टांग मार्ग
(1) सम्यक् ज्ञान –सही ज्ञान अर्थात् संसार का एवं अपने स्वरूप का वास्तविक ज्ञान तथा चार आर्य सत्यों में विश्वास।
(2) सम्यक् दर्शन – चार आर्य सत्यों के मन्तव्यों के उसी रूप में देखने अनुभूति का प्रयास,
(3) सम्यक् वाक् – सही वचनों का प्रयोग, इसके विपरीत असत्य, मिथ्या, दुर्वचन एवं कटु वचनों का प्रयोग न करना।
(4) सम्यक् कर्मान्त – सही एवं उचित कर्म तथा इसके विपरीत चोरी, व्यभिचार एवं हत्या आदिक दुष्कर्मों का परित्याग।
(5) सम्यक् आजीव – आजीविका के सही साधन का चयन तथा जो बुद्ध के शिक्षाओं(दर्शन) के विपरीत हैं उनका परित्याग।
(6) सम्यक प्रयत्न – सद् मानसिक बृत्तियों को अपनाना तथा इसके विपरीत का वर्जन करना।
 (7) सम्यक् विचार -  शरीर की नश्वरता जगत की क्षणिकता आदि का विचार करना जिससे अनात्म की सिद्धि हो सके।
 (8) सम्यक् समाधि - समाधि की अवस्था जिससे निर्वाण की प्राप्ति हो सके।
उपरोक्त आठ अंगों को ही अष्टागं मार्ग कहा जाता है। इन आठ अंगों त्रिरत्न अर्थात् प्रज्ञा, शील एवं समाधि भी कहा है -
प्रज्ञा – सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन
शील – सम्यक् वाक्, सम्यक् कर्मान्त, सम्यक् आजीव
समाधि – सम्यक् विचार, सम्यक् समाधि
निर्वाण का स्वरूप – बौद्ध दर्शन में निर्वाण को शान्त हो जाना बतलाया गया है शमन कहा गया है परन्तु यह शमन अस्तित्व का नहीं वरन् वासनाओं का शमन है दुखों का निरोध है। इस प्रकार निर्वाण कर्म एवं पुनर्जन्म की श्रंखला के परे है। यह परम शान्ति की अवस्था है। जहाँ सभी संस्कारों का क्षय हो गया है। महायान बौद्ध में निर्वाण को आनन्द स्वरूप भी बतलाया गया है। बौद्ध दर्शन में निर्वाण को इसी देह एवं जीवन में प्राप्तव्य माना गया है। इस प्रकार मुक्ति के प्रकारों में जीवनमुक्ति एवं विदेहमुक्ति दोनों को मानते हैं।
(बौद्ध दर्शन का प्रसार मध्य एशिया से लेकर दक्षिण एशिया पर्यन्त तथा चीन, जापान, कोरिया आदि देशों में काफी पहले ले हुआ है वहाँ की संस्कृति एवं समाज निर्माण में इसकी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। आज भी यह वहाँ के मुख्य धर्मों में समाहित है ।बीसवीं सदी के आसपास इसका प्रसार पश्चिम के देशों में भी हुआ है।)

    जैन दर्शन
    जैन-विचारधारा – मुख्य रूप से चौबीस तीर्थंकरों( ऋषभदेव-प्रथम तीर्थंकर तथा महावीर स्वामी(अन्तिम तीर्थंकर) की शिक्षाओं पर आधारित है।
जैन दर्शन का साहित्य मुख्य रूप से प्राकृत तथा संस्कृत भाषा में है। तत्त्वार्थसूत्र, प्रवचनसार, समयसार, द्रव्यसंग्रहगाथा आदि प्रमुख ग्रन्थ हैं ।
जैन शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत की ‘जिन्’ धातु से हुई है जिससे अभिप्राय है जीतना, जीत लेना। इसप्रकार जिन्होंने अपनी इन्द्रियों को, राग-द्वेष आदि संवेगों को जीत लिया, और इसलिये वे जिनेन्द्रिय कहलाये। तथा जो इन जिनेन्द्रिय(जैन मुनियों) के वचन पर आस्था रखते हैं उनके मार्ग पर अनुगामी होते हैं वे जैन हैं।

जीव Or Soul  - जैन दर्शन के अनुसार अस्तित्व या सत्ता के दो प्रमुख प्रकार हैं – जीव एवं अजीव। जीव वे हैं जिनमें चेतना है -                “चेतना लक्षणो जीवः”
                                                                   - द्रव्यसंग्रह
तथा अजीव तत्व वह है जिसमें चेतना या गति का अभाव हैं। अजीव का आगे दो विभाग हैं – अचेतन जड़ एवं अचेतन अजड़।
चेतना के अतिरिक्त जीव के अन्य मूलभूत लक्षण सुख, ऊर्जामयता तथा प्रकृति से ऊर्ध्वगामी होना कहे गये हैं। जीव के भी दो विभाग हैं – बद्ध जीव एवं मुक्त जीव। मुक्त जीवों में उपरोक्त गुण अनन्त संख्या मात्रा में तथा बद्ध जीवों में सीमिति मात्रा में बतालाये गये हैं। जीव संख्या में अनन्त बतलाये गये हैं। जीव के परिमाण  या आकार के सम्बन्ध में जैन दर्शन अस्तिकायवाद को मानता है। अर्थात् (अस्ति-है, काय-शरीर, जैसा) जिस परिमाण का शरीर है उसी परिमाण का भी जीव भी है। जीव के अन्य दो विभाग- स्थिर एवं गतिशील बतलाये गये हैं। इनमें भी उनमें इन्द्रियों की संख्या के आधार पर एक-इन्द्रियजीव, दो-इन्द्रिय जीव से लेकर पंचेन्द्रिय जीव (मनुष्य) विवेचन किया गया है।
“वनस्पत्यन्तानामेकम्।। कृमिपिपीलिका भ्रमर मनुष्यादीनामेकैक वृद्धानि ”।।
                                                                                 - तत्त्वार्थ सूत्र 2/22-23
मोक्ष का स्वरूप - जैन*
जीव एवं कर्म का संयोग ही जीव की अधोगति या संसारिक गति करता है। यही जीव का बंधन है। अतः जैन दर्शन में जीव की बंधनावस्था से मुक्ति के लिये महत्तवपूर्ण है कि वह अपनी पूर्णता को प्राप्त करे तथा सारे मलों एवं कषायों को छोड़कर शुद्धावस्था को प्राप्त करे। यही जीव का मोक्षा वस्था है। जैन दर्शन में मोक्षमार्ग के लिये सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन तथा सम्यक् चरित्र को मोक्ष का मार्ग बतलाया गया है -
सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्गः।।
- तत्त्वार्थ सूत्र, 1/1
Ø      सम्यक् ज्ञान – सम्यक् ज्ञान से आशय वस्तु का सही ज्ञान प्राप्त करना, यह तीर्थंकरों की वाणी एवं सत् साहित्य से ही संभव है।
Ø      सम्यक् दर्शन – सम्यक दर्शन से अभिप्राय है कि तीर्थंकरो की वाणी एवं सत् सद् ग्रन्थो से प्राप्त ज्ञान में आस्था तथा इसको वैसा ही समझना जैसा वर्णित है।
Ø      सम्यक् चरित्र – सम्यक् चरित्र से आशय है कि ज्ञान एवं दर्शन का चरित्र में अनुपालन तथा वैसा ही अनुभूति।
उपरोक्त वर्णित तीनों के अनुपालन तीन चर्याओं के द्वारा होने को कहा गया है – ये तीन  इस प्रकार है – आश्रव. संवर एवं निर्जरा
आश्रव – जीव के साथ कर्मो का जुड़ना ही आश्रव है। विविध वासनाओं, संस्कारों या अविद्या के कारण कर्म के अणु जीव के साथ संयुक्त होते हैं। इसके कारण जीव अपनी अवस्था से च्युत होता है(गिरता है)। यही जीव की बंधनावस्था है। इसप्रकार आश्रव से बंधनवस्था का प्रारम्भ हो जाता है।
संवर – जीव से कर्म के परमाणुओं का संयोग होने का कारण है, जीव की ओर विभिन्न कर्म परमाणुओं की गति। इस गति के से ही जीव एवं कर्मों का संयोग होता है। इस गति को रोकना संवर है। अर्थात् कर्म परमाणुओं की गति जीव की ओर रोकना संवर है।
संवरों के अन्तर्गत व्रत, चर्यायें, समितियाँ एवं संयम-कायिक, वाचिक एवं मानसिक तथा गुप्तियाँ आदि बतलाये गये हैं।
निर्जरा – कर्म परमाणुओं की गति को रोकने से नये कर्मों का जीव से संयोग नहीं होगा, परन्तु मोक्ष के लिये जो कर्म परमाणु जीव से पहले जुड़ चुके हैं उनके निकालना होगा, इस प्रकार जीव में अवशिष्ट(बचे) कर्म परमाणुओं को विलग करना ही निर्जरा है। निर्जरा की प्रक्रिया वास्तव में जीव की शुद्धावस्था को प्राप्त करने की प्रकिया है। इस प्रक्रिया के अन्तर्गत जैन दर्शन के अनुसार तप-साधनायें, शरीर के प्रति अनिर्भरता तितिक्षा, अनुप्रेक्षा, ध्यानविधियों आदि की सहायता आवश्यक होती है।
निर्जरा अवस्था की परिपूर्णता वास्तव में जीव की शुद्धावस्था को लाने वाली है। इस अवस्था से जीव अपनी बंधनावस्था से मुक्त होकर पूर्णावस्था को प्राप्त करता है। पूर्णवस्था ही मुक्तावस्था है। मुक्तावस्था में जीव के अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन तथा अनन्त समाधि कही गयी है। जैन दर्शन में उपरोक्त तीनों को “त्रिरत्न” भी कहा गया है। त्रिरत्न से आशय है – प्रज्ञा, शील और समाधि। इन तीनों रत्नों से युक्त जीव ही मुक्त होता है।
जैन दर्शन मोक्ष की दोनों अवस्थाओं को मानता है। जीवन के रहते हुए इसकी अनुभूति एवं प्राप्ति संभव है। यह जीवनमुक्तावस्था है। इसी प्रकार समस्त नाम, रूप आदि कर्मो के क्षय के साथ मुक्ति को प्राप्त करना – विदेह मुक्ति है।...........................................

1 comment:

  1. This matter is taken from My earlier website www.mantra.org.in. Please give the reference properly while using the material from some where - Sushim Dubey

    ReplyDelete