Saturday 27 August 2011

भारतीय दर्शनों में नास्तिकता


नास्तिकता
नास्तिक शब्द से साधारणतः ऐसे व्यक्ति का बोध होता है, जिसकी प्रचलित धर्मों में से किसी में भी आस्था न हो। कभी-कभी पूजा-पद्धति में अविश्वास या अरुचि के कारण भी हम नास्तिक का विशेषण व्यक्ति-विशेष के गले मढ़ देते हैं। यह नास्तिकता की संकीर्ण व्याख्या है। भारतीय दर्शन-परंपरा में नास्तिक उस व्यक्ति अथवा दर्शन को माना गया है, जो वैदिक संहिताओं को अपौरुषेय तथा स्वतः प्रामाण्य मानने से इंकार करता है। जिसके अनुसार वेदादि ग्रंथ अप्रामाण्य, मानवरचित कृतियां हैं। इनमें वर्णित विचार अद्भुत एवं महत्त्वपूर्ण भले हों, मगर वे एकमात्र और अंतिम सत्य नहीं हैं। अतः अन्य कृतियों की भांति इनकी भी अभीष्ठ समीक्षा-आलोचना संभव है। यह कार्य मानवीय ज्ञान-विज्ञान के लिए सर्वथा हितकारी है। दूसरी ओर वेदादि संहिताओं में पूर्ण आस्था रखने वाले, उन्हें प्रामाण्य, अपौरुषेय, अनादि और आप्तवाक्य मानने वाले विद्वान अथवा दर्शन—भारतीय दर्शन-परंपरा के अनुसार आस्तिक हैं।
आस्तिक एवं नास्तिक दर्शन
इस प्रकार आस्तिक एवं नास्तिक का भेद सीधे-सीधे वैदिक संहिताओं के प्रति क्रमशः विश्वास और अविश्वास से संबंधित है। इसी आधार पर दार्शनिकों को भी श्रोत और तार्किक नामक दो वर्गों में बांटा जाता है। सर्वदर्शन संग्रह के अनुसार एकमात्र वैदिक संहिताओं को आधार मानकर मूलतत्वों का अनुसंधान करने वाले दार्शनिक श्रोत कहलाते हैं। इनमें शंकराचार्य(वेदांत), पाणिनी(योग), जैमिनी(मीमांसा) आदि सम्मिलित हैं। तार्किक वे हैं जो मूलतत्वों के अन्वेषण हेतु तर्क-वितर्क को माध्यम बनाते हैं, जैसे कणाद(वैशेषिक), गौतम या अक्षपाद(न्याय), महावीर स्वामी(जैन), गौतम बुद्ध(बौद्ध), बृहश्पति(चार्वाक) आदि। तार्किकों के लिए वेद स्वतः प्रामाण्य नहीं हैं। इसलिए वे वेदों में आए विचारों की भी तर्कसम्मत व्याख्या-आलोचना करने की नीति के समर्थक हैं। तार्किकों के भी दो भेद हैं। एक वे जो स्वयं को पूरी तरह से तार्किक कहते हैं, किंतु श्रोत(वेदादि ग्रंथ) को अप्रामाण्य मानते हैं। दूसरे वे जो श्रोत को प्रामाण्य मानते हुए उसके भीतर ही भीतर तार्किक विश्लेषण के समर्थक हैं। यथा बादरायण के बृह्मसूत्र की व्याख्या करने वाले रामानुज तथा माध्व संप्रदाय के अनुयायी उपनिषदों को तो प्रामाण्य मानते हैं, किंतु श्रुति वाक्यों को नहीं। आशय यह है कि नास्तिकता सीधे वेदों की प्रामाणिकता के प्रश्न से जुड़ा मसला है, न कि ईश्वर की सत्ता अथवा असत्ता से। वेदों में बहुदेववाद तो है, मगर उसके मूल में जीवन को लेकर मनुष्य की स्वाभाविक जिज्ञासाएं हैं, जो भारत की परिवर्तनशील भौगोलिक परिस्थितियों तथा विविधवर्णी संस्कृति की देन हैं। यत्किंचित उनमें भौतिकवाद भी है, जिसे दर्शन का विस्तार मानना ही उचित होगा। कालांतर में धर्म जब दर्शन के स्थान पर रूढ़ होता गया और वाद-विवाद, दार्शनिक शास्त्रार्थ का अभिप्राय केवल कर्मकांडों के निर्वाह तक सिमटने लगा तो आस्तिकता और नास्तिकता का आशय भी ईश्वर में क्रमशः आस्था अथवा अनास्था तक सीमित होकर रह गया; या जानबूझकर कर दिया गया।
उपर्युक्त वर्गीकरण के अनुसार न्याय, वैशेषिक, चार्वाक, जैन, बौद्ध आदि नास्तिक दर्शनों की श्रेणी में आते हैं। इनमें चार्वाक दर्शन जिसे लोकप्रिय होने के कारण सामान्यतः लोकायत दर्शन भी कहा जाता है, विश्व-संरचना के मूल में किसी भी प्रकार की अध्यात्म व्यवस्था के योगदान का निषेध करता है। इस दर्शन में नास्तिकता के पारंपरिक एवं प्रचलित दोनों रूपों का दर्शन होता है। चार्वाक दार्शनिक आस्थावादी तथा कर्मकांड-प्रिय दार्शनिक-पुरोहितों की अध्यात्मपरकता की खिल्ली उड़ाते हैं। वेद-त्रयी उनकी निगाह में धूर्तों का प्रलाप है—‘त्रयो वेदस्य कत्र्तारो भण्ड-धूर्त-निशाचराः’ अर्थात वेदों के रचियता तीन हैं—भांड, धूर्त और निशाचर। चार्वाकपंथियों के मतानुसार स्वयं को वेदज्ञ कहने-समझने वाले धूर्त बगुला-भगतों ने आपस में ही वेदों को अनृत(झूठा), व्याघातपूर्ण(परस्पर विरोधी) तथा पुनरुक्त(दुहराव) दोषों से प्रदूषित किया है। उल्लेखनीय है कि वेदत्रयी के रूप में ऋक्, सोम, तथा यजुर्वेद को ही वैदिक संहिताओं का गौरव प्राप्त है, जिन्हें वेदानुयायी अपौरुषेय मानते हैं। चैथा ‘अथर्ववेद’ सबसे बाद की रचना है, जिसके अधिकांश श्लोक यजुर्वेद से लिए गए हैं। वेदों की रचना प्रकृति के सान्निध्य में विचरने वाले मुनियों ने अपने सतत चिंतन-मनन के उपरांत की थी, इसलिए इन्हें आरण्यक भी कहा जाता है। यजुर्वेद में जीवन को सुखी बनाने के लिए यज्ञादि का विधान है। कर्मकांड पोषक पुरोहितों ने उसे भी ‘वेद’ मान लिया है।
चार्वाक दर्शन
चार्वाक दर्शन आत्मा-परमात्मा, पुनर्जन्म, लोक-परलोक और मोक्ष आदि मान्यताओं को पूरी तरह नकारता है, जो आस्तिक दर्शनों की आधार मान्यताएं हैं और जिनपर भारतीय धर्म और आध्यात्म परंपरा टिकी हुई है। चार्वाकपंथियों के अनुसार मानव-जीवन का एकमात्र उद्देश्य सुख प्राप्ति है, जीवन जड़पदार्थाें से उसी प्रकार उत्पन्न हुआ है, जैसे पान-सुपारी और कत्थे के योग से लाल रंग बनता है। शरीर के साथ जीवन का पूरी तरह अंत हो जाता है। न आत्मा है, न परमात्मा। न पाप है, न पुण्य। चार्वाक दार्शनिक अवतारवाद और पुनर्जन्म की मान्यताओं को भी स्वीकार नहीं करते। उनके अनुसार सुख पाना ही जीवन का अभीष्ठ है, वह चाहे जैसे भी हो। यदि किसी को घी पीने से सुख मिलता है तो उसके लिए ऋण लेकर भी घी पीना नीति-सम्मत है—
':::'त्सु याव्वजीवेखं जीवेदृणं कृत्वा घृतम् पिबेत् भस्मीभूतस्य देहस्य पुर्नागमन कुतः'
जब तक भी जीवन है, सुख से जीयो, ऋण लेकर भी घी पियो, चिता पर भस्म हो जाने के बाद तो शरीर नष्ट हो जाता, उसके बाद यह शरीर दुबारा नहीं मिलने वाता। धुर व्यक्तिवादी दर्शन होने के बावजूद चार्वाक दर्शन को भारतीय दर्शन-परंपरा में महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। इसका कारण यह है कि इस दर्शन में नास्तिकता को बौद्धिक तर्कों के माध्यम से स्थापित किया गया है। चार्वाक दर्शन उन रूढ़ अंधविश्वासों को सिरे से नकारता है, जो कोरी आस्था या कर्मकांडों के नाम पर धर्म के अंदर घुसपैठ कर जाते हैं। वह कर्मकांड के नाम पर लोगों पर बौद्धिक जड़ता थोपे जाने का घोर विरोधी है तथा इस संसार को सत्य और अस्तित्ववान मानते हुए व्यक्तिमात्र का अपने सामर्थ्यानुरूप सुखोपभोग करने का आवाह्न करता है। आस्तिक दर्शनों की श्रेणी में सांख्य, योग, मीमांसा, वेदांत आदि आते हैं। आधुनिक विचारकों में महर्षि दयानंद, स्वामी विवेकानंद, रामकृष्ण परमहंस ने वेदों की शाश्वतता को स्वीकारा है, अतः इनके द्वारा प्रणीत पंथ, जो वस्तुतः वैदिक परंपरा का ही अनुसंधान हैं, भी आस्तिक दर्शनों की परंपरा में गिने जा सकते हैं। आस्थावादियों की दृष्टि में नास्तिकता को निंदनीय माना जाता है। तथापि उसे धर्म-विरोधी अथवा अधार्मिकता का पर्याय नहीं माना जा सकता। जैन और बौद्ध दर्शन जो नास्तिक दर्शनों की श्रेणी में आते हैं—द्वारा उद्भूत क्रमशः जैन और बौद्ध धर्म न केवल अच्छी तरह पनपे हैं, बल्कि देश-विदेश में उनका खूब प्रसार भी हुआ है। एशिया समेत विश्व के अन्य देशों में भारत की दार्शनिक मेधा की जो उत्कृष्ट छवि निर्मित है, उसके पीछे बौद्धदर्शन का योगदान बहुत बड़ा है।
आस्तिक एवं नास्तिक दोनों प्रकार के दर्शनों का अंतर विशुद्ध वैचारिक है। दोनों ही सत्य की खोज की चाहत में जन्मे हैं। मानव-जीवन को सत्यं-शिवं-सुदरम्’ की स्थिति तक ले जाना, उसे श्रेष्ठ से श्रेष्ठतर बनाना, उनका उद्देश्य है। पहले इनके विभाजन का आधार तार्किक था। इनमें चार्वाक दर्शन भौतिकवादी धारा का प्रतिनिधित्व करता है। कालांतर में मनुष्य की आध्यात्मिक जिज्ञासा के जवाब में पाखंडी धर्माचार्य रूढ़ियां और कर्मकांड थोपने लगे। आस्तिकता और नास्तिकता के भेद को प्रदूषित करने की शुरुआत भी उन्हीं के द्वारा, निहित स्वार्थों के निमित्त की गई। कारण विशुद्ध आर्थिक थे। चूंकि यज्ञादि धर्मकाडों के आयोजन के लिए धन की आवश्यकता पड़ती थी। इसलिए उनका आयोजन वही कर पाते थे, जिनके पास अतिरिक्त संसाधन हों। धीरे-धीरे यज्ञादि कर्मकांड वैभव-प्रदर्शन का प्रतीक बनते गए। पुरोहितों ने भी अपने यजमान को प्रसन्न करने के लिए ऐसे कर्मकांडों का विधान किया, जो उनकी भौतिक महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ति में सहायक हो सकते थे। किंतु वैभव-विलास के अतिरिक्त साधन सीमित लोगों को और तभी उपलब्ध हो सकते थे जब समाज के बहुसंख्यक वर्ग को सामान्य सुखों से वंचित रखा जाए। इस आर्थिक विभाजन के विरोध में अभावग्रस्तता का शिकार बहुसंख्यक श्रमशील वर्ग संगठित न हो, इसके लिए त्याग तथा दान-पुण्य तथा पुनर्जन्म का दर्शन गढ़ा गया। तदनुसार संपन्न वर्ग धन से अपनी निर्लिप्तता दर्शाने के लिए दान करने लगा। पुरोहितों को इससे दुहरा लाभ हुआ। एक तो दान के नाम पर लुटाए गए धन का अधिकांश हिस्सा वे स्वयं हड़प सकते थे। दूसरे इसके माध्यम से बहुसंख्यक श्रमशील वर्ग को त्याग के लिए प्रेेरित कर सकते थे। पारलौकिक सुखामोद के नाम पर उन्हें भरमाना आसान भी था। स्वर्ग की कल्पना भी ऐसे स्थान के रूप में की थी, जहां भौतिक सुखामोदों का अतिरेक है। स्वर्गाधिराज इंद्र अप्सराओं के नृत्य का आनंद लेते हैं। देवता सोमपान करते हैं। खाने के लिए षड्रस भोजन, दूध-दही की अफरात और आरामदेय आवास-व्यवस्था हैं। स्वर्ग का मिथक इतनी सुदंरता से गढ़ा गया कि उसके प्रलोभन के आधार पर इहलौकिक अभाव और दरिद्रता का महिमामंडन करना आसान हो गया। प्रपंची धर्माचार्य जनसाधारण को स्वर्ग के काल्पनिक सुख की चाहत में भरमाने लगे। जनसाधारण के लिए स्वर्ग का भ्रम आज भी पूर्वतः है। इससे उसका ध्यान उन कारणों की ओर नहीं जा पाता, जो उनके जीवन में अभाव और दुर्योग का वास्तविक कारण हैं। विचारणीय है कि सामाजिक कल्याण अथवा दूसरों के सुख के लिए अपने सुख का बलिदान करना नैतिकता की श्रेणी में आता है और मनुष्यता के हित में इसको छोड़ा भी नहीं जा सकता। किंतु पारलौकिक सुखों की चाहत में जीवन के स्वाभाविक सुखों से मुंह मोड़ लेना और छद्माशा में जीवन जीना कोरी अज्ञानता है। गरीबी के महिमामंडन का शिकार ब्राह्मण भी रहे हैं। सामंतवाद के आग्रह स्वरूप वे अपने ही बनाए दुष्चक्र में फंसते गए तथा जीवन में तप और साधना के नाम पर मामूली सुखों से वंचित अभाव का जीवन जीते रहे। ज्ञानार्जन का संपूर्ण अवसर मिलते हुए भी उन्होंने अपने समय और प्रतिभा का उपयोग केवल रट्टा लगाने तथा मंत्रों का सस्वर पाठकर पुरातन को जीवित रखने के लिए किया। इसके परिणामस्वरूप भारत के विगत आठ-नौ सौ वर्षों में एक भी नया दर्शन नजर नहीं आता।
चार्वाक दर्शन के प्रणेता बृहश्पति का कहना है—

:: न स्वर्गो नापवर्गो, वा नैवात्मा पारलौकिकः
नैव वर्णाश्रमादीनां क्रियाश्व फलदायिकाः
अग्निहोत्रं त्रयो वेदात्रिदण्डं भस्मगुण्ठनम्।
बुद्धिपौरुषहीनानां जीविका धातृनिर्मिता।।
पशुश्रेन्निहतः स्वर्ग ज्योतिष्टोमे गमिष्यति।
स्वपिता यजमानेन तन्न कस्मान्न हिंस्यते?
मृतानामपि जन्तूनां श्राद्धं चेत्तृप्तिकारणम्
निर्वाणस्य प्रदीपस्य स्नेहः संवर्धयेच्छिखाम्।। — सर्वदर्शन संग्रह
आशय है कि न तो स्वर्ग है, न अपवर्ग(मोक्ष) और न परलोक में रहने वाली आत्मा। वर्ण, आश्रम आदि की क्रियाएं भी फल देने वाली नहीं हैं। अग्निहोत्र, तीनों वेद, तीन दंड धारण करना और भस्म लगाना—ये बुद्धि और पुरुषार्थ से रहित लोगों की जीविका के साधन हैं। जिन्हें बृह्मा ने बनाया। यदि ज्योतिष्टोम-यज्ञ में मारा गया पशु स्वर्ग जाएगा, जो उस जगह पर यजमान अपने पिता को ही क्यों नहीं मार डालता? मरे हुए प्राणियों को श्राद्ध से यदि तृप्ति मिलती मिले तो बुझे हुए दीपक की शिखा तो तो तेल अवश्य ही बढ़ा ही देगा।
दर्शन का उदय भले ही मनुष्य की बौद्धिक जिज्ञासाओं के कारण हुआ हो, मगर प्रारंभ में ही यह मान लिया गया था कि धर्म में चामत्कारिक संगठन-सामथ्र्य निहित है। जिसके माध्यम से समाज के बड़े वर्ग को शासित और अनुशासित किया जा सकता है। इसलिए समाज के शीर्षस्थ वर्ग ने विचारों को धार्मिक आस्थाओं का रूप देना आरंभ कर दिया। प्राकृतिक घटनाओं के विश्लेषण में तर्क और ज्ञान का स्थान मिथकों ने ले लिया। जनसाधारण की बौद्धिक क्षमता के आगे प्रश्न-चिह्न लगा दिया गया। समाज के बहुतायत को उन धर्मग्रंथों पर श्रद्धा बनाए रखने के लिए कहा गया, जिन्हें पढ़ने की मनाही थी। शीर्षस्थ वर्गों ने अपने निहित स्वार्थों के कारण वैचारिक गत्यात्मकता के स्थान पर कर्मकांडीय जड़ता को बढ़ावा देना आरंभ कर दिया। यथास्थिति को बढ़ावा देने के लिए अनेक धार्मिक प्रतीक तथा मिथक गढ़े गए। नास्तिकता का अर्थांतर जिसे हम उसका अपभ्रंशीकरण भी कह सकते हैं, वैचारिक जड़ता बनाए रखने की इन्हीं साजिशाना कोशिशों का कुफल था। परिणामस्वरूप नास्तिकता जो अभी तक वैदिक संहिताओं की अपौरुषेयता के नकार तक सीमित थी, नीचे फिसलकर धर्म और कर्मकांडों के प्रति अनास्था तक आ गई। दर्शन-सम्मत होने के बावजूद धार्मिक प्रवंचनाओं के चलते नास्तिक होना धर्म-विरोधी, संस्कार-विरोधी मान लिया गया।
नास्तिकता कर्मकांडों, तद्विषयक मिथकों और प्रतीकों की सत्ता पर प्रश्नचिह्न लगाती है। अतः कर्मकांड समर्थकों तथा धर्म की दलाली करने वालों के लिए यह हमेशा ही असहज रही है। अपने समाजीकरण की प्रक्रिया में धर्म को कुछ कर्मकांडों और प्रतीकों की जरूरत पड़ती है। लेकिन उसमें पर्याप्त खुलापन और विमर्श की संभावनाओं का होना भी अनिवार्य है। जब कोई धर्म विचार से पूरी तरह कटकर अपनी समीक्षा के सभी द्वार बंद कर देता है, तो वह अपनी प्रामाणिकता खोने लगता है। दर्शन धर्म को एक वैचारिक आधार एवं तार्किकता प्रदान करता है। वह आत्मालोचना को उतना ही महत्त्व देता है, जितना अपनी वैचारिक प्रतिबद्धताओं को। चूंकि नास्तिकता भी मूलतः एक विचार या कि प्रतिविचार है, इसलिए प्रतिविचार के रूप में सही, नास्तिकता की प्रासंगिकता आज भी उतनी ही है जितनी वह वैदिककाल में थी। जिस नास्तिकता ने विमर्श के लिए प्रतिविचार के रूप में स्वयं को प्रस्तुत किया है, उसको आस्था के नाम पर विमर्श के लिहाज से पूर्णतः खारिज कर देना, अनुचित होगा। प्रसंगवश यह जानना भी आवश्यक है कि अरबों-खरबों वर्ष बने बृह्मांड में पृथ्वी जन्म करोड़ों वर्ष पुरानी घटना है। उसपर आधुनिक मनुष्य का आगमन मात्र बीस लाख वर्ष पहले हुआ। दूसरी ओर विश्व के प्राचीनतम धर्मों में से कोई भी दस-बारह हजार वर्ष से पुराना नहीं है। इसका सीधा-सा अर्थ है कि मनुष्य ने अपने विकासकाल का अधिकांश बिना किसी धार्मिक आस्था के बिताया है। हालांकि इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि लाखों वर्ष पुराने मानवसमाज में भी मनुष्य की अपनी उत्पत्ति को लेकर जिज्ञासाएं अवश्य रही होंगी, मगर वे कैसी थीं, इस बारे में कोई जानकारी आज उपलब्ध नहीं है। इसलिए धर्म का जीवन में तभी तक उपयोग होना चाहिए, जब तक वह हमें संगठित और संस्कारित करता है। मानवमूल्यों की मान्यता किसी भी धर्म अथवा विचार से अधिक है। जब कोई धर्म वैचारिक आधार पर ठहर जाता है, तो उसका परिष्करण आवश्यक हो जाता है। जो धर्म इस प्रक्रिया से बचता है, आत्मालोचना से घबराता है, उसका समाप्त हो जाना ही बेहतर है।
 चार्वाक दर्शन की आलोचना
उल्लेखनीय है कि चार्वाक दर्शन की आलोचना उसकी सुखवादी स्थापनाओं के लिए की जाती है, न कि उसके नास्तिकता संबंधी सोच को लेकर। सुखवाद की आलोचना करते हुए चार्वाक को जनसाधारण का दर्शन बताया जाता है। यह कहकर इसकी खिल्ली उड़ाई जाती है कि यह आमजन खाने-पीने को अधिक महत्ता देता है। यह समाज के शिखरस्थ वर्गों के ओछे सोच को उजागर करती है। भारत में मध्यमार्ग का उदय औद्योगिकीकरण के बाद की घटना है। उससे पहले यहां सामंतवाद था, जिसमें या तो अत्यधिक अमीर थे, अथवा अत्यधिक गरीब। उस समय भी सामज के बीस प्रतिशत शीर्षस्थ वर्गों के अधीन अस्सी फीसदी संसाधन थे। जबकि बाकी अस्सी प्रतिशत को मात्र बीस प्रतिशत संसाधनों से संतोष करना पड़ता था। जाहिर है कि उस बीस प्रतिशत से वे उतना ही पा सकते थे, जो जीवन की न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकें। ऐसे में जीवन की मूलभूत चिंताएं करना इस वर्ग की विवशता थी। असल चार्वाकपंथी तो वे सामंत और पुरोहितादि थे, जो अस्सी फीसदी संसाधनों के बल पर मौज उड़ाते थे। और स्वयं वेदज्ञ होने का दावा भी करते थे। अभावग्रस्त जीवन को उसी तरह से जीना भारत के आमजन की विवशता थी।
बौद्ध और जैन दर्शन भी वेद की अपौरुषैय मानने से इनकार करते हैं। इनमें मृत्योपरांत जीवन को लेकर किंचित मतभेद हैं, मगर उसकी स्थिति और तत्संबंधी संकल्पनाएं लगभग एकसमान हैं। वेदांत जिसे मोक्ष की संज्ञा देता है, जैन दर्शन उसे ‘कैवल्य’ की अवस्था बताता है। बौद्ध दर्शन जीवन-मरण से मुक्ति को ‘निर्वाण की संज्ञा देता है। ‘मोक्ष’ का अभिप्राय जन्म-मरण जिसे भवव्याधि कहा गया है, के चक्र से मुक्त होकर परमतत्त्व में एकलय हो जाना है। ‘कैवल्य’ का शाब्दिक अर्थ ‘केवल वही’ का बोध है, जिसमें साधक अपने आत्मसंज्ञान के आधार पर इतना ऊपर उठ जाता है कि उसको फिर लौकिक चक्र से गुजरना नहीं पड़ता। लगभग यही स्थिति निर्वाण की है। उसका शाब्दिक अर्थ है—बुझा हुआ। जैसे जला हुआ बीज दुबारा नहीं उपजता, उसी प्रकार जो व्यक्ति अपने तप-साधना की दिव्याग्नि में क्षुद्र कामनाओं को भस्म कर देता है, उसको जन्म-जन्मांतर के चक्र से मुक्ति मिल जाती है।
यहां एक प्रश्न स्वाभाविक है कि नास्तिक दर्शन होने के बावजूद जैन और बौद्ध दर्शन क्यों दुनिया-भर में फैले? वेदांत के अलावा सांख्य, मींमासा आदि आस्तिक दर्शन क्यों अपने ग्रंथों से बाहर न आ सके। वास्तव में सांख्य, मीमांसा आदि दर्शन कहीं न कहीं कर्मकांड और ब्राह्मणवाद का पोषण करने वाले थे। इस कारण वे जनसाधारण को अपनी ओर आकर्षित करने में नाकाम रहे। जबकि तर्कसम्मत और व्यावहारिक होने के कारण ही बौद्ध दर्शन को वैश्विक प्रतिष्ठा मिली। इसके समानांतर उपजा जैन दर्शन तर्कसम्मत तो था, किंतु वह व्यावहारिक नहीं था। फलतः उसका प्रभावक्षेत्र, भारत में भी धीरे-धीरे सिकुड़ता गया। न्याय और वैशेषिक दर्शन भारतीय मेधा की धाक जमाने में कामयाब हो सकते थे। परंतु भारतीय विद्वानों ने इनपर अपेक्षानुरूप काम ही नहीं किया। शंकराचार्य के बाद तो पूरा भारतीय चिंतन द्वैत और अद्वैतवाद की निरर्थक वेदांती बहसों में उलझा गया, यह जकड़न इतनी गहरी थी कि वह आज तक उससे बाहर आने को छटपटा रहा हो।
 नास्तिकता ही क्यों?
आवश्यक यह भी है कि जीवन में धर्म का मर्यादित हस्तक्षेप हो। हालांकि कुछ लोग यही कहेंगे कि जीवन को मर्यादित रखने के लिए धर्म का होना जरूरी है। मगर कर्मकांडों और आस्थाओं में जकड़ा हुआ धर्म कभी-कभी इतना ताकतवर भी हो जाता है कि वह मनुष्य के स्वतंत्र सोच को कुंठित करने लगता है। ऐसे में मनुष्य का आचरण धर्म की दृष्टि से कितना ही मर्यादित और आदर्श दिखे, वह अंततः धर्म के लिए ही खतरनाक सिद्ध होता है। हमें यह याद रखना होगा कि धर्म व्यक्ति के लिए होता है, न कि इसका उल्टा। इसलिए जब तक कोई धर्म मानव-मूल्यों की स्थापना, उनका परिष्करण एवं अनुपालन करने में सक्षम है, तभी तक वह ग्राह्यः है। इसलिए धर्म में वैचारिक गत्यात्मकता का होना अत्यावश्यक है। नास्तिकता चूंकि मानवीय संदेहों को गरिमा प्रदान करती है। इसलिए अधार्मिक कहलवाकर भी वह मानवमूल्यों की स्थापना में धर्म की सहधर्मिणी है। दूसरे शब्दों में धर्म के परिष्करण, उसकी पवित्रता एवं प्रतिष्ठा की रक्षा हेतु नास्तिकता उतनी ही आवश्यक है, जितनी आस्था।
आस्थावान व्यक्ति के संदेह विरामावस्था में होते हैं। क्योंकि वह अक्सर अपनी आध्यात्मिक मान्यताओं को लेकर जीवन के प्रति आश्वस्ति का भाव रखता है। इस तरह से नास्तिक का अभिप्राय जीवन के प्रति खोजी रवैया रखना है। दूसरे शब्दों में नास्तिक व्यक्ति वह भी है जिसका अभी तक ज्ञात किसी भी विचार या दर्शन परंपरा से कोई लगाव नहीं है। और वह सृष्टि के रहस्यों की खोज में इनके पार जाने की चाहत रखता है। वह अपने असंतोष और संदेहों को बचाकर रखता है। यही असंतोष और संदेह अंततः धर्म को परिष्कृत और परिपक्व अवस्था की ओर ले जाते हैं। धर्म अपने मूल रूप में साम्राज्यवादी होता है। इसके विपरीत विचार यानी दर्शन की मूल प्रवृत्ति लोकतांत्रिक होती है। वह अपने संदेहों और असंतोष को बचाकर रखता है तथा स्थापित मान्यताओं के विरोध में नए-नए सवाल खड़े करता है। फलस्वरूप विचार और परिष्करण की प्रक्रियाएं साथ-साथ चलती रहती हैं। नास्तिकता का घोर नकार धर्म को लोकतांत्रिक छवि प्राप्त करने से रोकता है, जबकि संदेह को वाजिब सम्मान देने के कारण नास्तिकता विज्ञानसम्मत भी है।....

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