Saturday 27 August 2011

मानव सभ्यता, प्रथम समाज, भारत वर्ष, आर्य और द्रविड़..


अभी तक ज्ञात भूवैज्ञानिक, जीववैज्ञानिक, चिकित्साविज्ञानी और अर्चियो लौगिकल खोजो के बाद यह माना जाता है की बंदरो (प्राइमेट)  से खड़ा होने वाला मनुष्य कोई नब्बे लाख साल पहले उत्तर पूर्वी अफ्रीका (प्राप्त जीवाश्मो के आधार पर) के दलदल वाले जंगलो में रहता था. कोई डेढ़ करोड़ साल पहले पूर्वी अफ्रीका, आजका सौदी, मेडागास्कर, ऑस्ट्रेलिया, फिजी और दक्षिणी भारत के भूखंड एक साथ जुड़े हुए थे... उसपे भी पहले प्रगैतिहासिक एकल महाद्वीप "painjea" के टुकड़े. मानव समूह कुछ तो अफ्रीका के दक्षिणी सिरे की तरफ चले, कुछ उत्तर में अफ्रीका की तरफ और कुछ पूरब की तरफ और उन्होंने शरुआती आबादिय बसाई. अफ्रीका में रहने वाली प्रजातियाँ जंगली बनी रहीं, उतर में जाने वाली जातियों के अत्यंत ठन्डे वातावरण का aadi होना पड़ा-- neanderthalman, rama pithecus austarlopithecus etc etc.. homho sapiens erectus.. जैसी कई मानव रूप आए. पूर्व में जाने वाली आबादी ने दुनिया की सबसे पुराणी सभ्यताओ में से एक सभ्यता बनाई .. वे भाग्यशाली थे क्योंकि यह बहुत उपजाऊ जमीं, सुरक्षित क्षेत्र  (सिन्धु, सरस्वती(जी हाँ वही सरस्वती  जो अब फिर से खोज ली गयी है), रावी, चनाब आदि से घिरा). अभी तक यह मन जाता था की सबसे पुरानी आबादी कोई ९ से १० हजार साल पहले उत्तर अफ्रीका, सुमेर, मेसोपोटामिया (आज के इराक) और दक्षिणी यूरोप में पनपी थी पर वो लम्बे समय तक रही नहीं. सिन्धु घाटी सभ्यता अभी तक केवल साढ़े सात हजार साल पुरानी ही मानी जा रही थी..पर कुछ दिनों पहले की एक खोज ने इसकी नयी आयु साढ़े  नौ हजार साल स्थापित कर दी है... यह सभ्यता यानि की सबसे पहली भारतीय (प्रायद्वीप) सभ्यता उन्नत होकर और पूर्व की तरफ फैली कोई एक से दो हजार साल तक पूरे  भारतीय प्रायद्वीप में विकसित हुई... खासकर गंगा के किनारे और सिन्धु और रावी के आसपास. 
              यह सभ्यता अपने उद्गम पर किसी एक कल पर अचानक समाप्त हो गयी.. पर इसकी ही विस्तृत सभ्यताएं या समाज जो उस काल या अभी तक के सम्पूर्ण मानव काल के सबसे उन्नत समाज थे.. बड़ी लड़ाइयो, छोटी रियासतों से आगे बढ़ते पूरे भारत को लगभग एक कर देने वाले गुप्त वंश साम्राज्य की सत्ता के समय भारत वर्ष की सामाजिक उन्नति अपने चरम पर थी ..जब हम पूरे विश्व को पढाया करते थे..अपने विश्वविद्यालयो नालंदा, तक्षाशिला, विक्रमशिला और काशी में  ... चाणक्य, वराहमिहिर, आर्य भट्ट , ब्रह्म्भात्त, भास्कराचार्य, पाणिनि, पतंजलि आदि  विश्व से आए कोई बीस हजार छात्रो को पढ़ने वाले ख्यातिप्राप्त आचार्य गण थे.. उनका ज्ञान कोई सपने देखने या कल्पना करके आया ज्ञान नहीं था शुद्ध शोध और परिक्षण से प्राप्त किया परम ज्ञान था ("परम ज्ञान" जो अभी तक विज्ञान सूंघ भी नहीं पाया है-- कमसे कम कुछ विषयो में). अब.. महत्वपूर्ण बात जिसको सही परिपेक्ष्य में लेने की जरूरत है और यह सबके लिए हैं भी नहीं* ..वो यह की वेदों का सृजन या कहें उसका शुद्ध परिमार्जन तभी कभी हुआ..वेद ज्ञान, परम ज्ञान के सबसे उछ सत्व जैसे हैं...उसे कई हिस्से बहुत पहले से चले आ रहे हो सकते हैं, पर वो अपने सबसे शुद्ध रूप में तभी आए ...पर उन्हें मानवेतर कहने का मतलब यही था की सामान्य जनता को, जिनकी पहुँच तब उस तक नहीं थी और उस महान ज्ञान के दूषित (?!) होने का खतरा तब शायद लोगों को होगा, उसकी अत्यंत उपयोगी महत्ता का ज्ञान न सही पर भान तो हो. *  हड़प्पा या सुधुु घाटी की पूर्व केंद्रीय आबादी कोई पांच हजार साल पहले अचानक समाप्त (नष्ट) हो गयी है जिसको अब समझा जा रहा है की वो किसी परमाणु धमाके से नष्ट हो गयी (जिसका उल्लेख महाभारत में है *). इसी सभ्यता जिसे अब भारत या (परम गुरु आचार्य चाणक्य द्वारा दृष्ट)"अखंड भारत" कहा जा सकता है से पढ़े लोग तब की नयी सभायाताओ में इस ज्ञान को लेकर गए.. इसमें से अरब, फारस, और और सुदूर रोमन सभ्यता तक जिनसे काफी सारा ज्ञान (हर तरीके का- गणित से लेकर रसायन ) आज के यूरोपे तक पहुंचा ..उसी के केंद्र में स्थित आजका जेर्मनी भी था जिसने इसी आदि भारतीय ज्ञान, यहाँ तक की शब्दकोष, रस्म और कुछ धर्म का हिस्सा प्राप्त किया और संजोया... समय के साथ यूरोप ने उस ज्ञान को अपना नाम व रूप दे दिया ..हिटलर का स्वस्तिक, जेर्मनी में संस्कृत शब्द इत्यादि ..और उसी नयी पैदा हुई (केवल भारत के मुकाबले) ने भी हमारे आर्य संबोधन को अपना लिया और उससे जुडी महत्ता को भी अपना नाम देने की लगभग सफल कोशिश उन्होंने कर ली..
              दक्षिण भारत और कुछ पश्चिमी भारत की जातियां जैसे सिद्दी आदि अभी अफ्रीका की कई जनजातियो से मिलती जुलती हैं (उनसे अनुवांशिक रूप से जुडी हैं यह प्रमाणित हो चूका है..) सही कहा जाये तो जैसा मुझे अभी तक मालूम चला है (मित्र आगे मालूम कर सकते हैं) की यह तथाकथित द्रविड़ ही भारत के सबसे मूल निवासी हैं... दक्षिणी टेकतौनिक प्लेट के एशिआतिक प्लेट में धंसने से  मध्य भारत का निर्माण हुआ था (करोडो साल पहले..!!) जहाँ पर लोग वास्तव में मध्य एशिया और उसी प्राचीन सभ्यता से ही आए... तो वास्तव में दक्षिण भारतीय भाई लाखो करोड़ साल से वहीँ रहते आए हैं यह तथाकथित आर्यन यानि हम उत्तर भारतीय ही नए लोग थे.. और उनमे शुरुआती लड़ियाँ संघर्ष भी हुए ही होंगे ... इसीलिए मध्य भारत की आबादी ने मिलीजुली एक नयी नस्ल बनायीं  जो भूरी या भारतीय थी और इसको भी लाखो साल हो चुके हैं.

             आर्यन शब्द संस्कृत आर्य से आया हुआ है जिसका तात्पर्य है भद्र, कुलीन, श्रेष्ठ जो स्वर्णिम भारत के लोग आपस में प्रयोग करते होंगे ..और जैसा की होता है उच्च वर्ग की नक़ल सामान्य लोग करते हैं जैसे आज के फ़िल्मी कलाकरों के विभिन्न भूषा या क्रियाशैली की नक़ल युवा और बच्चे करते हैं वैसे ही भारतीय विश्विद्यालयो में विश्व के कोने से पढ़ने आए छात्र भी अपने देशो में जाकर भारत में सुने ऐसे ही चिन्ह, तथ्यों और संबोधन का प्रयोग करते होंगे..पर समाजो में अथाह दूरी के करण उन्होंने उसे अपना ही तत्व बना लिया होगा(यह खासकर पश्चिमी इतिहासकारों का सोचा समझा कुचक्र है) और भारत न तो कभी इसे जान पाया, न उसे इसका मौका ही मिला और न उसने कभी कोशिश करी.. [पर आज कोई दुविधा नहीं है!!!]
आर्य हम भारतीय ही हैं.. जो द्रविड़ो से थोडा अलग होंगे.. पर अब हमें यह जानना और समझना होगा की अब सभी भारत वासी हैं इसलिए इस अकादमिक विभाजनो को adhik उछालकर हम भारत या आर्यावर्त की एकता अखंडता को अनजाने ही छिन्न भिन्न करने का प्रयास न करने लग जाएँ, ऐसा करके हम अपने दुश्मनों का काम और भी आसान कर देंगे..

             किसी भी सभ्यता के कई प्रतिमान और स्तर होते हैं वैदिक सभ्यता अभी तक की (जितना ज्ञात है) सबसे उन्नत, केवल materialistic वौज्ञानिक ज्ञान में ही नहीं अध्यात्मिक उन्नयन में भी युगों आगे रही है...  ये हमारा दुर्भाग्य रहा. जब बुजुर्ग भारत के दिए ज्ञान से बाकि  शिशु विश्व  किलकारियां मारना सीख रहा था (उन्होंने भी कुछ विशिष्ट अन्वेषण दिए..) उस वक्त भारत के वैभव की ख्याति लुटेरो तक भी पहुँच रही थी.. अमेरिगो और कोलुम्बस जैसे इंग्लॅण्ड से भारत को निकले और अमेरिका पहुँच गए.. अन्य  कई भारत भी पहुंचे .. पर सबसे करीबी आक्रान्ताओं ने जो सबसे खूंख्वार माने जाते हैं, ने इस शिष्ट और विद्वान सभ्यता और इसी कारण से आक्रमण से हीन सभ्यता का निर्ममता पूर्वक विनाश कर दिया.. पछले हजार साल के अपने सबसे काले युग में हमने अपना सबकुछ गँवा दिया... शिक्षा केंद्र, वैभव, धन सम्पदा, ज्ञान और सबसे बढ़कर अपना जाती अभिमान ..क्योंकि उसके बाद (चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य, स्कन्दगुप्त की लड़ाई आखिर तक शक हनो से होती रही) हम कभी उस विध्वंस से उबर नहीं पाए..  शक, हून, मुग़ल, अंग्रेज, फ़्रांसिसी, स्पनिश इत्यादि   हमारा सारा सामाजिक तानाबाना, धार्मिक सामाजिक व्यवस्था टूट फूट कर खिचड़ी बन गया.. जैसे हम आधे मंदिर, आधे मस्जिद में भी सर नवाते रहे उसी तरह अधकचरा धर्म, समाज आदि लेकर जैसे तैसे चलते रहे..
             ज्योतिष के विचार से अगर मैं कहूँ तो मुख्यतया १४४ वर्ण बनाये जा सकते हैं, वैसे तो अनगिनत हो सकते हैं, पर मोटे मोटे छह वर्ण बनाये जा सकते हैं.. पर ये भी समाज की आवश्यकता, काल पर निर्भर करता है... हमारे ऋषियों ने सबसे मौलिक चार वर्ण प्रतिपादित किये(क्योंकि वह उस समय के गाँव के प्रयोजन के लिए थे).. यह वर्ण किसी भी मनुष्य के पैदा होते वक्त उपस्थित गुण हैं... जैसे मैं उदहारण दू.. चार शीशियाँ (अपारदर्शी) हो और उनमे क्रमशः पानी, दूध, तेल और अम्ल भरा हो और उनपर उनके नाम के लेबल भी लगे हो..  किसी गंवार व्यक्ति के लिए यह पढ़कर जानना मुश्किल होगा की उनमे कौन से द्रव्य रखे हैं पर उस वयस्क व्यक्ति के लिए शीशी खोलने के बाद कठिनाई नहीं  होगी क्योंकि द्रव्य की विशेषता आप ही अपना बखान कर देगी..पर किसी पांच साल के बच्चे के लिए पता करना तब भी मुश्किल होगा किस्मे क्या है और किसका क्या करना है? सोचिये अगर उसने मां के कहने पर तेल की शीशी निकालने की जगह दूसरी शीशी से निकले अम्ल को बालो में लगा लिया तो?..  वर्ण यानि गुण, व्यवस्थित समाज में गुण यानि कर्म या व्यवसाय... पर कालांतर में मानसिक जड़ता और कुछ स्वार्थ के कारण इसे परिवार गत कर दिया गया .. पर क्या हम अपने को शिव नाम से जाने तो हमारे भाल पर गंगा आकर बैठ जाएँगी? नहीं. आजके जाति का उस वर्ण से कोई सम्बन्ध नहीं, जो जैसा काम कर ले जायेगा उसकी वैसी योग्यता कहलाएगी.. डॉक्टर का बेटा पैदा होते ही डॉक्टर तो नहीं कहलायेगा न.. जैसे की अमिताभ का बेटा पैदा होते ही (यहाँ तक की बड़ा होंे के बाद भी) अमिताभ नहीं गया. हम आज निरे नादान चार साल के बच्चे जैसा बर्ताव कर रहे हैं. मुझे आप  अपनी कुंडली देंगे तो मैं आपका वर्ण बताने की कोशिश कर सकता हु. और, हर व्यक्ति पाना वर्ण लेकर खुद पैदा होता है. एक ही घर में कई वर्ण योग्यता वाले लोग पैदा हो सकते हैं. और.. किसी भी एक समाज में किसी पूर्ण विशुद्ध "ब्रह्मण" के पैदा होने की सम्भावना ९ % से अधिक नहीं है, "ब्रह्मण जैसी" योग्यता को लेकर २५% ही .और वास्तव में वह ब्रह्मण भी नहीं होगा..क्योंकि ब्रह्मण तो कई करोडो में कोई एक होगा और आवश्यक भी नहीं कोई पैदा भी हो..और समाज के विमर्श से भी यह सम्भावना काम या अधिक हो सकती है...और शुद्र ..शुद्र बाकि वर्णों के "सामान" ही एक गुण है जिसका तिरस्कार या बहिष्कार तो करना ही अधर्म होगा.. ब्रह्मण को श्रेष्ठ कहने का मतलब बस इतना है की ज्ञानी पुरुष (वो समाज, परिवार में एक ही हो सकता है ) का परामर्श ही श्रेष्ठ होता है, कहा भी गया है ज्ञान श्रेष्ट सम्पदा..पर समाज में हर वर्ग, हर वर्ण की सामान महत्ता है.. अब आपको समझ आ जायेगा की आजके समाज में ब्रह्मण कौन है और शुद्र कौन..* यह फिर कभीI
जो भी है.. हमें एक उच्च व्यवस्था को स्थापित करना है, परम पिता के दिए नियम और व्यवस्था के अनुसार.
बस ऐसे ही कुछ चीजे मैं आपको बता दू... हमारा देश पिछले पांच आठ सौ सालो में दुर्भाग्यशाली रहा पर  आजादी के बाद शुद्र वर्ण का हो गया है..हमारी कैसी स्थति है उससे साफ है..
अब..
इतिहास जो भी हो... पुरानी सभ्यताएं उन्नत होने के साथ अधिक विभक्त और साथ दुर्बल भी होती जाति हैं और उनके नाश का खतरा बढ़ जाता है.. आज इस भूभाग में रहने वाला बस भारतीय है पर हमारे साथ हमारा काफी ताजा टीसने वाला, दर्द देने वाला इतिहास भी है.. अपनी मुर्खता, अनभिज्ञता का पश्चाताप बी हमें ही करना होगा.. क्योंकि पितरो का तर्पण और अपने पूर्वजो के उरिन के लिए अपने सुख और हो सके तो प्राण का अर्पण शास्त्रोक्त है. इतने पददलित, कुचले हीन, मान भान से  रिक्त अपने इतिहास और समाज का बदला लेने का समय अब पास आ गया है. सही जानकारी के साथ हमें एक होना होगा...
एक धर्म प्राण होना होगा..इस धर्म का नवसृजन और सुदृढ़ीकरण  भी करना ही होगा.. इस पुरानी तलवार को नयी धार देनी ही होगी.
आगे क्या होने वाला है यह तो भविष्य में है पर अब हमें उन करोडो कटे मस्तको की छवि, उस कटु इतिहास और अपने  निरीह पूर्वजो की आत्माओ के ऋण से कैसे उरिण होना है यह हमें ही सोचना है............

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