Sunday 28 August 2011

जीव की गति PART - 1



आत्मा , जो की जिस शरीर को धारण करती हँ उसी उसी शरीर के लिए नियत कर्मो को करने के लिए बाध्य होती हँ
जैसे अगर यह जीवात्मा किसी कुत्ते के शरीर को धारण करती हँ तब ये घास नहीं खा सकती, तब इसे कुत्ते के शरीर के अनुरूप ही अपना आचरण करना होता हँ, ऐसे ही ये आत्मा जब मनुष्य शरीर को धारण किया करती हँ तब इसे भगवान् की भक्ति को प्राथमिकता देनी चाहिए न की नाम के बाद लिखे जाने वाले सरनेम को ...
ऐसा मेरा विचार हँ, आप लोग मुझसे सहमत हो, ये जरुरी नहीं, आपके अपने विचार हो सकते हँ
पर फिर भी में चाहूँगा की आप लोग इस पोस्ट को पढ़े क्योकि इस पोस्ट को लिखने में काफी मेहनत की हँ ....


तीन ही तत्त्व हँ
भगवान , जीव और माया या संसार
भगवान् , जीव और माया का शासक हँ
माया भगवान् की जड़ शक्ति हँ और जीव चेतन शक्ति
जीव के पास यह स्वतंत्रता हँ की वेह या तो भगवन की तरफ जाए या माया की तरफ
परन्तु यह जीव भगवान् के द्वारा कर्म करने के लिए दी हुई स्वतंत्रता का दुरूपयोग कर मायिक विषयों, मायिक जीवो, मायिक पदार्थो की प्राप्ति, उनके संग्रह, उन्हें अधिकाधिक भोगने की लालसा के कारण माया की तरफ ही चलता हँ
रेगिस्तान में मृग मरीचिका की भाँती उसे ये भ्रान्ति होती हँ की मायिक विषयों में बड़ा सुख हँ, और इसी सुख की लालसा में वेह और अधिकाधिक मायाबढ होता चला जाता हँ
मायाबद्ध होने के कारण वेह यह भूल जाता हँ की वास्तविक और स्थायी सुख केवल भगवत्प्राप्ति पर ही संभव हँ, उससे पहले नहीं..
वेह साड़ी उम्र कर्म में रत रहता हँ पर वास्तविक सत्य को नहीं जान पाता
शास्त्रों में सच ही कहा गया हँ की केवल कर्म करने से किसी को सिद्धि नहीं मिल सकती..
मन, बुद्धि पर माया का प्रभाव होने के कारण ये जीव अपनी मायिक बुद्धि से अपने भले बुरे का फैसला नहीं कर पाता और मायिक मन, मायिक बुद्धि '''सजातीय ''' होने के कारण इसे स्वाभाविक ही मायिक विषयों में खीचते हँ, उस पर से अनंत जन्मो से मायिक विषयों में ही व्यवहार करने का संस्कार भी इस जीवात्मा के अंतःकरण पर पड़ा होता हँ, इसलिए यह अपने वास्तविक कल्याण, अपने सदा के हितेषी, सदा के निकट सम्बन्धी , भगवान् की तरफ नहीं चल पाता
जब तक ये जीव मायाबद्ध हँ तब तक यह दुःख ही भोगता हँ... लेकिन, कभी किसी संत आदि के सत्संग आदि से जब यह जीव यह जानता हँ की उसके माता, पिता , पुत्र आदि सभी रिश्ते नाते केवल भगवान से हँ और भगवान की प्राप्ति करने पर ही वेह आनंदमय होगा तब वेह माया की गुलामी छोड़कर भगवान की तरफ चलता हँ...
अब यहाँ यह सवाल उठता हँ की अगर ये जीव भगवान का अंश हँ तो क्यों दुःख उठाता हँ?
माया, या मायिक पदार्थो को की प्राप्ति होने पर सुख मिलेगा..अनंत जन्मो से चली आ रही ये '' आशा'' ही दुखो मूल हँ की ये मिल जायेगा तो सुखी हो जायेंगे या फिर इस बार तो सुख नही मिला लेकिन इस बार ऐसा मनचाहा हो जाये तो इस बार सुखी हो जायेंगे...
और क्रम सदा से चला aa रहा हँ...
माया से बद्ध
जिस प्रकार से सपना देखते समय सपने में किसी वास्तु का अस्तित्व न होने पर भी जागे बिना उस स्वप्न जनित अनर्थ की निवृत्ति नहीं होती , उसी प्रकार ''' सांसारिक वस्तुए यद्यपि असत हँ
तो भी अविद्यवश(माया बद्ध होने के कारण )जीव उनका चिंतन करता रहता हँ और इसीकारण उसका जन्म मरण रूप इस दुखमय संसार से छुटकारा नहीं हो पाता ...
मायिक विषयों में ही मन की आसक्ति होने से और तदनुसार कर्म में रत रहने से जीव भिन्न भिन्न देहो को ग्रहण करता हँ और त्यागता रहता हँ,
इसी से उसे हर्ष, भय, शोक, सुख, दुःख आदि का अनुभव होता रहता हँ, जिस प्रकार कोई जंक, जब तक किसी दुसरे तरुण को नहीं पकड़ लेती तब तक पहले को नहीं छोडती , उसी प्रकार जीव मरंकाल उपस्थित होने पर भी जब तक देहाराम्भाक कर्मो की समाप्ति होने पर दूसरा शरीर प्राप्त नहीं कर लेता तब तक पहले शरीर के अभिमान को नहीं छोड़ता
अतःएव इस जन्म मरण रूप महान दुःख को देने वाली इस माया से छुटकारा चाहो तो श्री भगवान् का आसरा लो, उनकी शरण जाओ, उन्हें अपना स्वामी मानो
इस मनुष्य शरीर को धरान कर जीव का वही समय सफल हँ जिस समय वह श्री हरी का भजन करता हँ
भगवान् और उनकी शक्तिया अनादी हँ, अर्थात ये कभी किसी भी काल में, कल्प में नष्ट नहीं होती
इसलिए ये माया भी अनादी हँ, कोई जीव अपने ऊपर से माया को हटा सकता हलेकिन वो माया को कदापि ख़तम नहीं कर सकता, माया उस पर से हट जायेगी लेकिन बाकी जीवो पर रहेगी..
भगवान् भी अगर चाहे तो अपनी शक्ति माया को ख़तम नहीं कर सकते क्योकि भले हो वो जड़ हँ लेकिन अनादी और अनंत हँ
यह जीव जब अपने प्रारब्ध नुसार किसी नास्तिक के घर में जन्म लेता हँ तो वह मिले संस्कारों और परवरिश के कारण उसकी बुद्धि नास्तिको वाली ही विकसित होती जाती हँ और आगे चलाकार वेह नास्तिकतावाद का ही प्रचार करता हँ, अगर कोई उसे जबरदस्ती शास्त्रों का मर्म समझाए या वेह खुद ही शास्त्रों का अध्यन करे तो श्रद्धा न होने के कारण उसके द्वारा ज्ञान प्राप्त करने की कोई कोशिश कामयाब नहीं होती और वेह ऐसा निष्कर्ष निकालता हँ की भगवान् नाम की कोई चीज नहीं हँ, ये भगवान् नाम का तत्त्व तो किन्ही बिगड़े दिमाग वाले लोगो की उपज हँ , कमजोर लोगो को सहारे के लिए इस भगवान् नाम के तत्त्व को बढ़ावा दिया गया
वेह नहीं समझ पाता की कैसे अनंत ब्रह्मांडो के स्वामी भगवान् स्वयं एक मनुष्य के रूप में पृथ्वी पर अवतार लेकर मनुष्य सरीखी लीलाए कर सकते हँ,????
इस रहस्य को न जान्ने के कारन वेह उन लीलाओं में दोष्बुद्धि करता हँ
और नासमझी वश भगवान् के भक्तो की बुराई कर और भी पाप कमाता हँ और स्वयं के नरक जाने को सुनिश्चित करता हँ
इसके विपरीत जो जीवात्मा अपने पूर्व कर्मोवश किसी आस्तिक के परिवार में जन्म लेकर और उस घर के माहोल और परवरिश के अनुसार अपने अंतःकरण में आस्तिकते के, भगवान् के प्रति प्रेम के संस्कारों को विकसित करता हँ और भगवान् की सत्ता को स्वीकारकर उनके आगे श्रद्धापूर्वक झुकता हँ और भगवान् के प्रति प्रेम को अपनी श्रद्धा को अधिकाधिक बढ़ता हँ वेह सौभाग्यशाली जीव इस जन्म मरण रूप दुखमयी चक्र को तोड़कर सदा के लिए भगवत्धाम जाता हँ
यह श्राध ही हँ की साधारण जीव भी सूरदास, तुलसीदास, मीरा, नानक, कबीर, तुकाराम,ज्ञानेश्वर, वल्लभाचार्य, रामानुजाचार्य, नर्सिंग मेहता., निम्बार्काचार्य, आदि बन जाता हँ, जबकि नास्तिक व्यक्ति अपनी विद्वत्ता के बोझ तले दबकर मरता हँ
यह स्वाभाविक रूप से समझा जा सकता हँ की आस्तिक और नास्तिक जीव संसार में सदा से रहे हँ और सदा ही रहेंगे..
क्योकि अगर ये नास्तिक विचारधारा ख़तम हो जाए तो समझना चाहिए की ये माया ही समाप्त हो जाए, जो की असंभव हँ,
इसीलिए भगवान् ने भी गीता के अंत में अर्जुन को सावधान किया हँ की इस परम पवित्र गीता के ज्ञान को किसी श्रद्धा हीन को मत कहना, कारन की श्रद्धा न होने के कारण वो दोष निकालेगा और ऐसा करते रहने से वो और भी ज्यादा नास्तिक बनता जाएगा
यहाँ यह ध्यान देने वाली बात हँ की केवल भगवान् की भक्ति करने के कारण ही ये मनुष्य जीवन सर्वश्रेस्थ कहलाता हँ वरना अन्य कामो, यथा, ''' आहार, निद्रा, भय ,मैथुन ''' आदि में जानवरों के ही सामान हँ
हर जानवर भी अपना पेट भरना जनता हँ, हर जानवर सोता हँ, हर जानवर को भय आदि भावो का अनुभव होता हँ , हर जानवर सम्भोग आदि करता हँ
इन सब बातो में जानवर और मनुष्य सामान हँ, लेकिन कोई भी जानवर भगवद भक्ति कर भगवत्प्राप्ति नहीं कर सकता , यही इसी बात में मनुष्य जानवरों से श्रेष्ठ हँ, लेकिन, मायाबद्ध होने और भगवान् के प्रिय संत महात्माओं में श्रद्धा न होने के कारण यह जीव अपनी दुर्गति करता रहता हँ और माया इस जीव पर हसती रहती हँ
कितने ही संतो ने इस माया को लताड़ते हुए जीवो को सावधान करने वाले पदों की रचना की हँ लेकिन दुर्देव वश इस जीव की इन सैंट महात्माओं के साहित्य में रूचि नहीं होती बल्कि, इन्हें भोतिक विषयों के ऊपर लिखे साहित्य को पढने की खूब रूचि होती हँ
सचमुच भगवान् की ये माया बड़ी बलवान हँ, जैसे कोई आदमी सर पर बोझा उठाये जा रहा हो और मार्ग में थक जाने पर वो उस बोझे को अपने कंधे पर रख लेता हँ और मुर्खता वश बड़ी राहत महसूस करता हँ, जबकि वो अभी भी उस बोझे को उठा रहा हँ,
ऐसे ही ये माया हँ जो की बड़े बड़े (भोतिक ) विद्वानों, वैज्ञानिको को पता भी नहीं चलने देती की वे कितना दुःख उठा रहे हँ, अपनी बुद्धि के अभिमान में चूर लोग वे लोग ये साबित करने में साड़ी उम्र लगा देते हँ की भगवान् नाम का कोई तत्त्व नहीं हँ
ऐसे ही जीवो को देखकर हमारे गुरूजी ने एक बड़ा सुंदर पद बनाया हँ, वो बहुत लम्बा पद हँ पर उसकी दो laines यहाँ लिखना चाहूँगा
'''' हों ऐसो हो पतित जो पतित न आपहु मान..
ऐसे पतित विचित्र को पावन करहु तब जान ''''
अर्थात संत भगवान् से प्रार्थना करते हँ की भक्त लोगो को मुक्ति दी उसमे क्या बड़ी बात हँ,
बड़ी बात तो तब मानी जाए जब आप ऐसे जीवो को भी शास्वत आनंदप्राप्ति करवाए जो अपने आपको पतित ही न माने, निरंतर भगवान् को गालिया देने वाले लोगो की भगवत प्राप्ति जरुरी हँ ''''''
संत महात्माओं की शेल्ली बड़ी अटपटी होती हँ , सूरदास का एक पद लिखकर अपनी बात ख़तम करना चाहूँगा
'''''' मुझे इन लोगो को देखकर अचम्भा होता हँ जिन्हें श्रीकृष्ण की भक्ति से आस्वादन में आने वाले आनंद का, या श्रीकृष्ण की मधुरता रुपी अमृत फल का त्याग कर देते हँ और माया का विशेला फल चखते हँ
ये मूर्ख मलयगिरी के चन्दन की निंदा करते हँ और शरीर में राख लिपटते हँ
जिसके तट पर हंस विचरण करते हँ उस मान सरोवर को छोड़कर कोवो के स्नान करने योग्य जोहड़ में वे स्नान करते हँ
ये मुर्ख अपने जलते घर को बुझाना छोड़कर कूड़े के ढेर को बुझाते हँ(अर्थात त्रिताप में सारा जीवन जल रहा हँ यह ध्यान में नहीं आता, अज्ञानवश मनुष्य जीवन क्षण क्षण नष्ट हो रहा हँ यह नहीं दीखता भगवान् का आश्रय लेकर भजन करने के बदले सांसारिक भोगो को नष्ट होने से बचाना चाहते हँ वे भोग जिनका एक दिन नाश होना ही नोना हँ )
चोरासी लाख यौनियो में नाना शरीर धारण कर बार बार भ्रमण करता हुआ जीव यमराज की ताड़ना का अधिकारी बनता हँ, अर्थात यमराज के यहाँ जाकर अपने कर्मो के अनुसार नरक को प्राप्त कर वह दिव्या वर्षो तक दुःख उठता हँ या मृत्यु का परिहास पात्र बना रहता हँ
जगत का सब आचरण मृगतृष्णा के जल के सामान मिथ्या हँ उसके संग के लिए ये मायिक मन ललचाया करता हँ
सूरदासजी कहते हँ की ये अभागा मनुष्य क्यों सैंटो की बात मानकर उन श्री हरी की आश्रय नहीं लेता??
लोग सिवाय जातिवाद से अलग कुछ नहीं सोचते, यहाँ तक की स्वयं में नासमझी का दोष हँ लेकिन फिर भी भगवान् में दोष्बुद्धि करते हँ
मनुष्य शरीर धारण कर की गयी उनकी दिव्या लीलाव को न समझने के कारन उनमे कमिय ढूंढते हँ
और तो क्या सारे शास्त्रों में ही अपनी जातिवादी नजर रखकर सबको ब्राह्मणों की चाल रूप से देखते हँ..
आप लोगो से निवेदन हँ की इसे पढ़े और स्वयं का आत्मनिरीक्षण करे.......... बस इसी वजह से मैंने पिछले दो घंटे से ये पोस्ट लिखी हँ...... '''' जय श्री कृष्ण ''

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